जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 20

९५१- संसार में वैसे ही रहो जैसे मुँह में जीभ रहती है, जीभ कितना ही घी खा ले, परंतु चिकनी नहीं होती।

९५२- जो दुखियों पर दया करता है, धर्म में मन रखता है, घर से वैराग्यवान् होता है और दूसरों का दुःख अपना-सा जानता है, उसी को अविनाशी भगवान् मिलते हैं।

९५३- जिसने युद्ध में लाखों आदमियों को जीत लिया वही असली विजयी नहीं है। वास्तविक विजयी तो वह है, जिसने अपने-आपको जीत लिया है।


९५४- मनुष्यों के द्वारा जितना व्यवहार होता है, सब ब्रह्म की सत्ता से होता है; किंतु अज्ञानवश वे उस बात को नहीं जानते। वास्तव में घड़ा आदि सब मिट्टी ही तो हैं। पर हम घड़े को मिट्टी से भिन्न समझते हैं। यही तो अज्ञान है।


९५५- बार-बार दुःख पाने पर भी मनुष्य विषयों से सुख पाने की आशा को छोड़ता नहीं और बार-बार उन्हीं को पकड़ता है। यही तो मोह की महिमा है।


९५६- जो मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति पर भली-भाँति विचार नहीं करता और इस विचार से कि अन्तमें मुक्ति हो ही जायेगी, पुरुषार्थ की ओर कोई ध्यान नहीं देता; वह मृत्यु के अनिवार्य चक्र से कभी नहीं बच सकता।


९५७- अगर अपने भीतर और बाहर प्रकाश चाहते हो तो जीभरूप देहली द्वार पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख दो अर्थात् जीभ से रामनाम जपते रहने से बाहर-भीतर ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा।


९५८- गाफिल के लिये साईं का घर दूर है; परंतु जो बंदा उनकी हाजिरीमें सदा मौजूद है, उसके लिये तो साईं हाजराहजूर हैं।


९५९- जिस के आचरण में वैराग्य उतर आया हो वही सच्चा विरागी है। वाणी का वैराग्य सच्चा वैराग्य नहीं है।


९६०- भगवान का साकार रूप भी सत्य है और निराकार भी सत्य है। तुम्हें जो अच्छा लगे, उसी.में विश्वास कर, तुम उसे पुकारो तो तुम उसी एक को पाओगे। मिसरी की डली चाहे जिस ओर से, चाहे जिस ढंग से तोड़कर खाओ, वह मीठी लगेगी ही।


९६१- उस विश्वास को लाओ जो ध्रुव में, प्रह्लाद में और नामदेव में आया था। इसी विश्वास की बदौलत सम्पूर्ण शङ्का, संदेह और झगड़े दूर हो जाते हैं।


९६२- कामातुर मनुष्य ही कंगाल है। जो सदा संतुष्ट है, वह यथार्थ धनी है। इन्द्रियाँ ही मनुष्यत्व की शत्रु हैं। विषयों का अनुराग ही बन्धन है। संसार ही मनुष्य का चिररोग है। संसार से निर्लिप्त होकर रहना ही इसकी एकमात्र दवा है


९६३- जैसे स्त्री नैहर में रहती है, परंतु उसकी सुरति पति में लगी रहती है। इसी प्रकार भक्त जगत में रहता है, परंतु वह हरि को कभी नहीं भूलता।


९६४- ऊँची जाति का अहंकार कोई मत करो। साहेब के दरबार में केवल भक्ति ही प्यारी है ।


९६५- पृथ्वी की ओर देखकर पैर रखना, जल को कपड़े से छानकर पीना, वाणी को सत्य से पवित्र करके बोलना और मन में विचार करने पर जो
उत्तम प्रतीत हो, वही करना।


९६६- मन को सन्मार्ग पर ले जाने का पहला साधन 'सत्य' है। दूसरा 'संसार से उपरामता' है, तीसरा 'आचरण की उच्चता और पवित्रता' है और चौथा 'अपने अपराधों के लिये प्रभु से क्षमा की प्रार्थना करना' है


९६७- कभी चरित्र से पतित न होना चाहिये। गिरने में गौरव नहीं है। पतितावस्था से पुनः-पुनः उठकर खड़े होओ, इसी में परम गौरव है।


९६८- जिस प्रकार दवा के बिना बीमारी को शमन करना कठिन है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना सांसारिक प्रभुता को सँभालना दुस्साध्य है। मनुष्य चारों ओर अज्ञान से घिरा हुआ है, इसलिये वह भोग-लिप्सा के पीछे पड़ जाता है।


९६९- किसी चीज से भी न चिढ़ो। काम उसी निर्लिप्त भाव से करो, जिस तरह वैद्यलोग अपने रोगियों की चिकित्सा करते हैं और रोग को अपने पास नहीं फटकने देते। सब उलझनों से मुक्त अथवा साक्षी की भावना से काम करो। स्वतन्त्र रहो।


९७०- जब देह में से श्वास निकल जायेगा तब पछतायेगा। इसलिये जबतक शरीर में श्वास है, तभीतक राम का स्मरण करके उनका गुण गा ले।


९७१- क्षणमात्र को प्राप्त होने वाले थोड़े-से जीभ के स्वाद के लिये जीवों की हत्या करनी बड़ी ही नृशंसता है। भगवान के भेदोंसे भरे हुए अपने पेट को जानवरों की कब्र बनाना उसका निरादर करना है। एक चींटी को भी न सताओ; क्योंकि वह भी जीवधारी है और अपना जीव हर एक को प्यारा है।


९७२- अगर तेरे घट में प्रेम है तो उसका ढिंढोरा न पीट। तेरे हृदय के भाव को अन्तर्यामी जानते ही हैं।


९७३- रे मन ! तू बड़ा ही कठोर है, मेरे अंदर से तू निकल क्यों नही जाता? उस सुन्दर, साँवरे, सलोने रूप बिना तू रात-दिन कैसे जीता है।


९७४- तीन चीजें हैं, जिनको जितना बढ़ाओगे, उतनी ही बढ़ती रहेंगी, इनसे सावधान रहो-भूख, नींद और भय।


९७५- भगवान की अनन्य भक्ति से मनुष्य सर्वलोकों के महेश्वर, समस्त जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले, वेदों को उत्पन्न
करने वाले परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है।


९७६- मेरे सद्गुण मेरे साथ कभी बीमार नहीं पड़ते। इसी प्रकार वे मेरी कब्र में भी मेरे साथ नहीं गड़ सकते।


९७७- जो मनुष्य मानव-जीवन का मूल्य नहीं समझता, वह दुखी और साधु पुरुषों की सेवा से मिलने वाले माधुर्य का अनुमान नहीं कर सकता।


९७८- ईश्वर पर अपनी मर्जी मत चलाओ। शारीरिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध में ईश्वर की इच्छा को पूर्ण होने दो। सांसारिक आवश्यकताओं में ईश्वर की मर्जी को ही अपनी मर्जी बना लो।


९७९- जो मनुष्य अपने सुख के लिये किसी भी प्राणी को मारता और मरने पर कहीं भी सुख नहीं पाता ।


९८०- चारों अवस्थाओं को व्यर्थ खो दिया, श्रीहरि का नाम नहीं लिया। जब शरीर छूट जाएगा, तब यमराज के यहाँ यम की यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। फिर पछताने से कुछ नहीं होगा।


९८१- जिसने प्रेम का नियम नहीं लिया, जिसने काम को नहीं जीता और जिसने नेत्रों से अलखपुरुष भगवान के दर्शन नहीं किये, उसका
जीवन व्यर्थ है।


९८२- बुद्धिमान् मित्र, विद्वान् पुत्र, पतिव्रता स्त्री, दयालु मालिक, सोच-विचार कर बोलने वाला और विचारकर काम करने वाला इन छःसे हानि नहीं हो सकती।


९८३- जो श्रीहरि के प्रेम-रस में मतवाले हो रहे हैं, उनका विचार बहुत गहरा है। ऐसे साधु त्रिभुवन की सम्पत्ति को तृण के समान समझते हैं।


९८४- निरंतर भगवत्-तत्त्व.का चिन्तन करो, नश्वर धन का चिन्तन छोड़ो। देखो, सारा संसार व्याधि रूप सर्प से डसा जा रहा है और सब लोग शोक से पीड़ित हो रहे हैं।


९८५- दान, पश्चात्ताप, संतोष, संयम, दीनता, सत्य और दया-ये सात वैकुण्ठ के दरवाजे हैं।


९८६- भगवद्-भजन में दूसरों की निन्दा करना तथा भक्तों के प्रति द्वेषभाव रखना महान् पाप है। जो अभक्त हैं, उनकी उपेक्षा करो, उनके सम्बन्ध में
कुछ सोचो ही नहीं, उनसे अपना सम्बन्ध ही मत रखो। जो भगवद्भक्त हैं, उनकी चरणरज को सदा अपने सिर का आभूषण समझो। उसे अपने शरीर का सुन्दर सुगन्धित अङ्गराग समझकर सदा भक्तिपूर्वक शरीर में मला करो।


९८७- तप से सब प्रकार के संताप नष्ट होते हैं, तप से सभी दुःख, भय, शोक और मन का क्षोभ आदि विकार दूर होते हैं, तपस्वी भक्त ही यथार्थ में भगवान नाम का अधिकारी है।


९८८- धर्म का निवास कहीं दूर नहीं है, धर्म सदा अपने ढूँढ़ने वाले के बगल में ही बसता है। जिसने एक बार भी धर्म के लिये चेष्टा की, उसी को धर्म मिल जाता है। सज्जनों को दूसरों के दोषों में भी धर्म के दर्शन होते हैं।


९८९- विवेकरहित वैराग्य हठवादिता का पागलपन है और केवल शाब्दिक ज्ञान से तो मनुष्य स्वयं ही घबड़ा उठता है। इसलिये जिसमें विवेक और वैराग्य दोनों हैं, वही पुरुष भाग्यवान् साधु है।


९९०- श्रद्धालु मनुष्य का हृदय ईश्वर का गुणानुवाद गाने और सुनने से अत्यन्त पवित्र हो जाता है, भगवच्चर्चा ही उसका अन्न है, प्रभु-प्रेम उसकी शान्ति है, हरि का स्थान ही उसकी दूकान है, भजन-कीर्तन उसका व्यापार है, धर्मग्रन्थ उसकी सम्पत्ति है, भूलोक उसका खेत है, परलोक उसका खलिहान है और प्रभु-प्राप्ति ही उसके परिश्रम का
फल है।


९९१- 'चलो-चलो' की पुकार तो सभी मचाते हैं, परंतु पहुँचता कोई विरला ही है; क्योंकि इस मार्ग में 'कनक' और 'कामिनी' की दो बड़ी घाटियाँ हैं।


९९२- किसी के मन में सच्चा प्रेम पैदा हो और वह साधन-भजन करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो जांए, तो उसे मार्ग बतलाने वाले सद्गुरु आप ही मिल जाते हैं, उसे गुरु की खोज नहीं करनी पड़ती।


९९३- बहुत अधिक बोलने से व्यर्थ और असत्य शब्द निकल जाते हैं। इसलिये कर्मक्षेत्र में जितना कम बोलने से काम चले, उतना ही कम बोलना चाहिये।


९९४- केवल मुँह से ही ज्ञान बघारने वाला पण्डित नहीं है, वह तो ठग है। पण्डित तो वही है, जो ज्ञान के अनुसार बर्ताव करता है यानी जो कुछ कहता है, वही करता है।


९९५- जो पीछे बीत चुका या आगे होने वाला है, उसकी चिन्ता न करो। लेकिन जो समय तुम्हारे हाथ में है, उसे अच्छे-से-अच्छे कार्य में लगाओ।


९९६- जो इस प्रकार जानता है कि यह महान् अजन्मा आत्मा अजर, अमर और अभय है, वह निश्चय ब्रह्म ही हो जाता है।


९९७- तप करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, दान देने से ऐश्वर्य मिलते हैं, ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है और तीर्थ स्नान से पाप नष्ट होते हैं।


९९८- भगवान के पवित्र, सुन्दर और मनोहर नामों का तथा उनके अर्थों का ज्ञान और उनकी अलौकिक लीलाओं का लज्जा छोड़कर कीर्तन करते हुए श्रेष्ठ भक्त को आसक्ति रहित होकर पृथ्वी पर विचरण करना चाहिये।


९९९- क्रोध मनुष्य का बड़ा भारी बैरी है, लोभ अनन्त रोग है, सब प्राण्यिों का हित करना साधुता है और निर्दयता ही असाधुपन है।


१०००- जो चेतन को जड़ और जड़ को चैतन्य कर सकते हैं, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथ जी को जो जीव भजते हैं, वे ही धन्य हैं।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 20 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 20 Reviewed by Vishant Gandhi on November 01, 2020 Rating: 5

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