९०१- धन की तीन गतियाँ हैं- दान, भोग और नाश। जो मनुष्य न तो दान देता है और न भोगता है, उसके धन का नाश हो जाता है।
९०२- पापों के कटने के लक्षण ये हैं-
१- पाखण्डियों से अलग रहना।
२- असत्य का त्याग करना।
३- अहंकारी मनुष्यों से दूर रहना।
४- भगवान की तरफ आगे बढ़ना।
५- केवल कल्याण के ही मार्ग पर चलना।
६- अधर्म, अनीति और पापकर्मो को छोड़ने की दृढ़ प्रतिज्ञा करना।
७- किये हुए पापों को नष्ट करने के लिये योग्य प्रायश्चित्त करना।
८- नालायक के साथ नालायकी न करना।
९०३- यदि अपना मन बदल जाय -साफ हो जाए, तो अपने-आप ही व्यवहार-बर्ताव में परिवर्तन हो जाएगा और उसका असर प्रतिपक्षी पर देर-सबेर पड़ेगा ही।
९०४- जो मनुष्य यह चाहता है कि प्रभु सदा मेरे साथ रहें उसे सत्य का ही सेवन करना चाहिये। भगवान् कहते हैं, कि मैं केवल सत्यप्रिय लोगों के ही साथ रहता हूँ।
९०५- बहुत प्रश्र करना मूर्खता की निशानी है। मूर्ख घंटे भर में जितने प्रश्न कर बैठता है, बुद्धिमान् उनका पूरा उत्तर सात वर्षों में भी नहीं दे सकता।
९०६- इच्छा को रानी बना लो या दासी, रानी बनाकर उसकी आज्ञा में चलोगे तो वह दुःख के कुण्ड में डुबो देगी और दासी बनाकर अपनी आज्ञा में रखोगे तो सारे सुखों की प्राप्ति होगी।
९०७- हरि से नहीं, तू तो हरि के जन से प्रेम कर, हरि तो माल-मुल्क ही देते हैं, पर हरि-जन तो साक्षात् हरि को ही दे देते हैं।
९०८- जरा-सी कामना रहते भगवान् नहीं मिलते। तागे में अगर जरा-सा भी खूदा हो तो वह सूई में नहीं जा सकता।
९०९- सभी प्राणियों के अन्दर भगवान् श्रीहरि आत्मरूप से विराजमान हैं। अतः सब प्राणियों को भगवान का निवास स्थान समझकर किसी से भी द्रोह न कर; ऐसा करने से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं।
९१०- शान्त, धर्ममय, प्रिय और सत्यवचन ही सुभाषण हैं। ऐसी बात कहनी चाहिये जो आत्मा के विरुद्ध न हो और जिससे किसी को दुःख न पहुँचे।
९११- सज्जन को झूठ जहर-सा लगता है और दुर्जन को सच विष के समान लगता है। वे इनसे वैसे ही दूर भागते हैं, जैसे आग से पारा।
९१२- जहाँतक हो, चुप रहो और जरूरत पड़ने पर उतना ही बोलो, जितना काम हो।
९१३- जबतक मनुष्य लौकिक जीवन में रहता है, तबतक वह अलौकिक सुख-सम्पत्ति का मजा नहीं पा सकता।
९१४- सच्ची माता वह है, जो अपने बालकों के क्रोध, द्वेष और ईर्ष्यारूपी रोगों को प्रेमरूपी दवा से नष्ट करना सिखाती है और असली वैद्य वह जो आनन्दी स्वभाव और शुभ भावना रखने और उत्तम कर्म करने की शिक्षा देता है, जिनसे शरीर और हृदय को बल मिलता है। आनन्दी स्वभाव ही सबसे श्रेष्ठ दवाका काम देता है।
९१५- मनुष्य-देह बार-बार नहीं मिलेगी, इसलिये इसको पाकर भगवान का भजन, सेवन और सुकृत का सौदा कर लो।
९१६- सबके साथ दयालुता का बर्ताव करो, चाहे वे किसी भी दशा में क्यों न हों। क्रोध की अवस्था में भी दयापूर्ण शब्दों का ही प्रयोग करो।
९१७- लोभ महापाप की खान है। अधर्मी झूठ लोभ का मन्त्री है, तृष्णा स्त्री है, जो उसे अन्धा कर देती है। लोभ से मनुष्य को न तो उन्नति-अवनति का पता रहता है और न काल का भय।
९१८- जैसे माता अपने गर्भ को जतन से रखती है, जिसमें कहीं ठेस न लग जाय, इसी प्रकार भक्ति को भी जतन से छिपाकर रखना चाहिये।
९१९- जो मनुष्य पाप के द्वारा कुटुम्ब का भरण-पोषण करता है, उसको महाघोर अन्धता मिस्रनामक नरक में जाना पड़ता है, उस नरक को
भोगने के बाद वह और भी नीची योनियों में जाकर भाँति-भाँति के कष्ट भोगता है। फिर जब पाप का फल भोगकर शुद्ध होता है, तब उसे मनुष्य-योनि मिलती है।
९२०- शरीर के द्वारा किये दोषों से मनुष्यों को स्थावर (वृक्ष आदि) योनि मिलती है, वाणी द्वारा किये हुए कर्मो के दोष से पशु-पक्षी-योनि मिलती है और मन द्वारा किये हुए कमोकि दोष से चाण्डाल की योनि मिलती है।
९२१- पिता के कर्ज को चुकाने वाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परंतु भव-बन्धन को छुड़ाने वाला तो अपने सिवा और कोई नहीं है।
९२२- लालच बुरी बला है। जिन्होंने धन पैदा करके उसे अच्छे कामों में लगाना नहीं सीखा, उनकी बुरी दशा होती है, इससे तो धन न होना ही अच्छा है, जो व्यर्थ की चिन्ता तो न हो।
९२३- जो लोग सुख की आशा से विषयों के पीछे भटकते रहते हैं, उनकी दशा मणि को पाने की आशा से उसकी परछाईं को पकड़ने के लिये व्यर्थ प्रयास करने वाले मूढ़ मनुष्य की सी है।
९२४- जो कुछ मिले उसी में संतोष करना और दूसरों से डाह करना, यही शान्ति के खजाने की कुंजी है।
९२५- दुर्बल मस्तिष्क के मनुष्य ही संकटों से घबराकर उसके वश में हो जाते हैं, मनोबल से सम्पन्न पुरुष तो संकटों को पैरों-तले दबाकर उन पर सवार हो जाता है।
९२६- सत्य के पाये पर खड़े रहने से जो आनन्द मिलता है, उसकी तुलना अन्य किसी प्रकार के आनन्द से नहीं की जा सकती।
९२७- जो मनुष्य सदा चिन्ता में डूबे रहते हैं, निरन्तर भयभीत रहते हैं, मन को सदा क्रोध से पूर्ण रखते हैं, वे सदा ही प्रायः आधे बीमार रहते हैं। चिन्ता में डूबे रहने वालेको अन्न अच्छी तरह कभी नहीं पचता ।
९२८- हृदय की सरलता और निर्मलता ही ईश्वरीय ज्योति है, यह ज्योति ही ईश्वर के मार्ग को दिखलाती है।
९२९- अधिक जनसमुदाय में बसने की रुचि ही बाँधने वाली रस्सी है, पुण्यात्मा लोग इस रस्सी को तोड़कर एकान्त में तप करते हैं, पापी लोग इसी रस्सी में दिनों दिन दृढ़ता के साथ बँधते जाते हैं।
९३०- भगवान् संसार के आश्रय-स्थल हैं, जगत के बन्धु हैं, वे सभी के प्राणों के रक्षक हैं, सर्वथा प्रेममय हैं, इसी कारण सब में अभेद-भाव रखते और सबकी रक्षा करते हैं, उनका स्नेह सब पर समान रहता है। इस बात को ज्ञानी जानते हैं, इसी से वे प्रेम रखते हैं, मूढ़ इस रहस्य को नहीं जानते, इसीलिये उनसे द्वेष करते हैं।
९३१- प्रसन्नता, आत्मानुभव, परमशान्ति, तृप्ति, आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये विशुद्ध सत्त्वगुण के धर्म हैं। इनसे मुमुक्षु पुरुष नित्यानन्द-रस को प्राप्त करता है।
९३२- चन्दन के पेड़ जब उगते हैं, तभी वे अपने आसपास सुगन्ध नहीं फैला देते, जब उनकी कलम की जाती है, तभी वे चारों ओर अपनी सुगन्ध फैलाते हैं। इसी प्रकार संकट में मनुष्य के गुणों का विकास होता है।
९३३- चित्त को पवित्र करने जैसा कल्याण कारक साधन और कोई है, नहीं; क्योंकि चित्त ही चिन्तामणि की भाँति सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाली भूमि है।
९३४- जिसके विचार और चिन्तन पवित्र हैं, उससे अपवित्र क्रिया बन ही नहीं सकती, उससे तो विशुद्ध कर्म ही होते हैं।
९३५- हे भिक्षुओ ! जबतक तुम लोग ब्रह्मचारियों से कायिक, वाचिक, मानसिक मित्रता रखोगे, भीख का अन्न समान भाव से बाँटकर खाओगे तथा सत्-धर्म की रक्षा करोगे और सत्-धर्म पर ही दृष्टि रखोगे, तबतक तुम लोगों का पुण्य क्षय नहीं होगा।
९३६- इन्द्रियों को वश में रखना, जीभ को काबू में रखना, सत्कार्य में दृढ़संकल्प रहना और भगवान की इच्छा पर खुश रहना, चाहे वह तुम्हारे प्रतिकूल ही हो, बस, यही सच्ची शूरता है।
९३७- दया, नम्रता, दीनता, क्षमा, शील और संतोष इन छःको धारण करके जो भगवान को स्मरण करता है वह निश्चय ही मोक्ष पाता है।
९३८- शरीर खेत है, मनुष्य किसान है, पाप-पुण्य दो बीज हैं। जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल होता है।
९३९- ईश्वर के आश्रित मनुष्य में ये बातें होती हैं, १- उसकी विचारधारा सदा ईश्वर की तरफ ही बहती है।
२- ईश्वर में ही उसकी स्थिति होती है और
३- ईश्वर की प्रीति के लिये ही उसके सारे कर्म होते हैं।
९४०- जिस प्रकार रात्रि तारागणों को प्रकाश देती है, उसी प्रकार संकट भी मनुष्य को प्रकाश देता है।
९४१- हम जो अपने शत्रुओं के गुप्त इतिहास को पढ़ें तो हमें प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इतना दुःख और शोक भरा मिलेगा कि फिर हमारे मन में उनके प्रति जरा-सा भी शत्रुभाव नहीं रहेगा।
९४२- धन, वैभव, कुटुम्ब, विद्या, दान, रूप, बल और कर्म आदि के गर्व से अन्धे होकर दुष्ट लोग भगवन् और भगवान के भक्त महात्माओं का तिरस्कार किया करते हैं।
९४३- जैसे मुसाफिर राह चलते, रास्ते में किसी एक जगह पर मिल जाते हैं, फिर थोड़ी देर विश्राम करने के बाद अपनी-अपनी राह चले जाते हैं, वही हाल हमारे सांसारिक सम्बन्धों का है। पहले प्रारब्ध वश दो आदमी मिलते हैं, फिर प्रारब्धवश ही दोनों बिछुड़ जाते हैं। जो मनुष्य सांसारिक सम्बन्धों के इस मिथ्या रूप को अच्छी तरह समझ लेता है, उसे कोई दुःख नहीं सता सकता।
९४४- सम्पूर्ण भूत परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं, अतएव ब्रह्म ही हैं। ऐसा निश्चय करना चाहिये।
९४५- प्रेम-प्रेम सब चिल्लाते हैं, पर प्रेम को पहचानता कोई नहीं। जब आठों पहर तल्लीनता रहे, तभी प्रेम समझना चाहिये।
९४६- कवियों ने संतों के हृदय को नवनीत-जैसा बतलाया है। परंतु उन्होंने भूल की; क्योंकि नवनीत अपने ताप से ही पिघल जाता है, पर संत तो दूसरों के दुःख से द्रवित होते हैं।
९४७- रात को पहले पहर सब जागते हैं, दूसरे पहर भोगी जागते हैं, तीसरे पहर चोर जागते हैं और चौथे पहर योगी जागते हैं।
९४८- पण्डित तो वह है जिसके प्रेम-चक्षु खुल गये हैं, जो ज्ञान और प्रेम के आवेश में पशु, वनस्पति और पाषाण तक में अपने ठाकुर को देखता और
पूजता है।
९४९- लोग भला कहें या बुरा, उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये। संसार के यश और निन्दा की कोई परवा न करके ईश्वर-पथ में चलना चाहिये।
९५०- जैसे नमक और कपूर एक ही रंग के होते हैं, पर स्वाद में फर्क होता है, इसी प्रकार मनुष्यों में भी पापी और पुण्यात्मा होते हैं।

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