४५१- रे मन ! यह कह कि मैं 'राम-कृष्ण-हरि' कहूँगा, उल्लास के साथ हरि-कथा सुनूँगा, संतों के पैर पकडूंगा । तू इतना जरूर कर कि मैं जब हरि-प्रेम से रंगशाला में नाचूँ, तब तू भी अंदर का मैल धोकर तैयार रह और तालपर ताली बजाता चल ।
४५२- रे मन ! अब भगवान के चरणों में लीन हो जा, इन्द्रियों के पीछे मत दौड़ । वहाँ सब सुख एक साथ हैं और वे कभी कल्पान्त में भी नष्ट होनेवाले नहीं।
४५३- ऐसी विषम अवस्था में जब मन और इन्द्रियाँ एक तरफ हो गयी हैं और दूसरी तरफ मैं हूँ, मेरी उन की ऐसी तनातनी है, तब हे हरि ! आप ही मध्यस्थ होकर इस कलह को मिटाइये, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
४५४- मेरे दुर्गुण मुझे जान पड़ते हैं, पर क्या करूँ ? मन पर बस नहीं चलता ! अब आप ही हे नारायण ! बीच में आ जाइये और अपने दया-सिन्धु होने को सत्य कर दिखाइये।
४५५- मैं जैसा भी हूँ, तुम्हारा दास हूँ। मेरे माँ-बाप ! मुझे उदास न करो।
४५६- क्या करूँ, अब इस मन को? यह विषय की वासना तो नहीं छोड़ती, मनाने से भी नहीं मानती! ठीक पतन की ओर लिये जा रही है। हे हरि ! अब दौड़ो, नहीं तो मैं अब डूबा ।
४५७- और कोई नहीं दिखायी देता जो इस मन को रोक रखे ! एक घड़ी भी एक स्थान में नहीं रहता, बन्धन तड़ातड़ तोड़कर भागता है। विषयों के भँवर भरे भव सागर में कूदना चाहता है। आशा-तृष्णा, कल्पना-पापिनी मेरा नाश करने पर तुली हुई है । हे नारायण ! तुम अभी देख ही रहे हो।
४५८- परमार्थपथ में धन, स्त्री और मान-तीन बड़ी खाइयाँ हैं। पहले तो परमार्थ के पथ में चलने वाले पथिक ही बहुत थोड़े होते हैं, फिर जो होते हैं, उनमें से कुछ तो पहले पैसे की खाई में ही खो जाते हैं। इससे जो बचते हैं, वे आगे बढ़ते हैं। इसमें से कुछ को दूसरी खाई (स्त्रीकी) खा जाती है। इससे भी बचकर जो आगे बढ़े, वे तीसरी खाई (मानकी)
में खपते हैं। इन तीनों खाइयों को जो पार कर जाते हैं, वे ही भगवत्कृपा के पात्र होते हैं, पर ऐसा पुरुष विरला ही होता है।
४५९- विरक्त के लिये धन गोमांस है। स्पर्श करने को कौन कहे, वह उसकी ओर ताकतातक नहीं है।
४६०- रीछनी गुदगुदाकर प्राण हर लेती है, वैसे ही परमार्थी पुरुष यह जाने कि कामिनी का सङ्ग नाश करने वाला है और उससे दूर रहे।
४६१- प्राण जाय तो भी एकान्त में या लोकान्त में कभी स्त्रियों से सम्भाषण न करे।
४६२- हे नारायण ! स्त्रियोंका सङ्ग न हो। काठ-पत्थर और मिट्टी की भी स्त्री की मूर्तियाँ सामने न हों। उनकी माया ऐसी है कि भगवान का स्मरण नहीं होता, भगवान का भजन नहीं होता, उनसे पर्चा हुआ मन वश में नहीं होता। उनके नेत्रों के कटाक्ष और हाव-भाव इन्द्रियों के रास्ते मरण के कारण होते हैं। उनका लावण्य केवल दुःख का
मूल है।
४६३- वैष्णव के लिये परस्त्री रुक्मिणी माता के समान है।
४६४- परधन और परदारा की इच्छा पाम रोंके ही चित्त में उठा करती है।
४६५- नाम और मान के पीछे दुनिया तबाह है।
४६६- परमार्थ के साधक को चाहिये कि लोगों के फेर में कभी न पड़े। लोग दोमुंहे होते हैं, ऐसा भी कहते हैं, वैसा भी कहते हैं। वमन की तरह जन-सङ्ग को त्याग दे। जो अपना हित चाहता हो, वह जन को त्यागकर हरि भजन का सरल मार्ग आदर और प्रेम से स्वीकार करे ।
४६७- हे मन! माया जाल में मत फँसो। काल अब ग्रसना चाहता है। आओ, श्रीहरि की शरण आओ।
(ति ४६८–इस संसार से जो रूठा, उसी ने सिद्धपन्थ पर पैर रखा ।
४६९- घर-बाहर की सब उपाधि दूर करने के लिये एकान्तवास ही सर्वोत्तम उपाय है।
४७०- केवल एकान्त ही आधी समाधि है।
४७१- भोगों का स्वरूप जान लेने पर उनमें रस आना बंद हो जाएगा। फिर अपने आप ही उनमें अरुचि हो जाएगी। वे खारे लगने लगेंगे और ज्यों-ज्यों उनमें अरुचि होगी-उनकी इच्छा का नाश होगा, त्यों-ही-त्यों भगवत्प्राप्ति की-नित्य सुन्दर और अनन्त को पाने की तीव्र आकाङ्क्षा जाग उठेगी।
४७२-भगवत्प्रेम जैसे-जैसे बढ़ता है-कर्ता भगवान् हैं, मैं नहीं; यह जो कुछ है भगवान का है, मेरा नहीं; यह भाव जैसे-जैसे बलवान् हो उठता है वैसे-वैसे अहंकार की आँधी भी बंद होती जाती है।
४७३- अहंकार, लोकप्रियता, मान-ये सब लोकैषणाओं के बादल उत्कट भक्ति का सूर्योदय होते ही गल गये।
४७४- पाप की मैं गठरी हूँ। दण्ड दो मुझे हे नारायण ! और मेरा मान-अभिमान उतारो। प्रभो ! मैं न तेरा हुआ न संसार का । दोनों से गया। केवल चोर बना रहा।
४७५- जन-मान साधक को धरती पर पटककर उसके परमार्थ का सत्यानाश करनेवाला है।
४७६- लोग बड़ी प्रशंसा करते हैं, पर मुझसे वह सुनी नहीं जाती, जी छटपटाया करता है। तुम जिसमें मिलो, हे हरि ! ऐसी कोई कला बताओ, मृगजल के पीछे मत लगाओ। अब मेरा हित करो, इस जलती हुई आग से निकालो।
४७७- संतचरणों की रज जहाँ पड़ती है ,वहाँ वासना-बीज सहज ही जल जाता है। तब राम-नाम में रुचि होती है और घड़ी-घड़ी सुख बढ़ने लगता है। कण्ठ प्रेम से गद्गद होता, नयनों से नीर बहता और हृदय में नाम-रूप प्रकट होता है, यह बड़ा ही सुलभ सुन्दर साधन है, पर पूर्वपुण्य से यह प्राप्त होता है ।
४७८- काय, वचन, मन से मैं हरिदासों का दास हूँ।
४७९- संत-मिलन की बड़ी इच्छा थी, बड़े भाग्य से वह मिलन हुआ। इससे सब परिश्रम सफल हो गया।
४८०- हरिभक्त मेरे प्यारे स्वजन हैं। उनके चरण मैं अपने हृदय पर धरूँगा। कण्ठ में जिन के तुलसी-माला है, जो नाम के धारक हैं, वे मेरे भव-नदी के तारक हैं। आलस्य के साथ हो, दम्भ से हो अथवा भक्ति से हो, जो हरि का नाम गाते हैं, वे मेरे परलोक के साथी हैं।
४८१- कोई कैसा भी हो, यदि हरिनाम लेने वाला है तो वह धन्य है।
४८२- हरि-कथा माता का अमृतक्षीर जिनके सत्सङ्ग से सेवन कर पाता हूँ, उन दयालु हरि-भक्तों के दासों का मैं दास हूँ।
४८३- अखण्ड नाम-स्मरण का आनन्द अहर्निश प्राप्त हुए बिना चित्त-शुद्धि का साक्षात्कार नहीं हो सकता।
४८४- नाम-स्मरण का चसका लगना है,बड़ा कठिन है। पर एक बार जहाँ चसका लगा, वहाँ फिर एक पल भी नाम से खाली नहीं जाता।
४८५- नाम-स्मरण यह है कि चित्त में रूप का ध्यान हो और मुख में नाम का जप हो। अन्तःकरण में ध्यान जमता जाय, ध्यान में चित्त रँगता जांए, चित्त की तन्मयता होती जाय, यही वाणी में नाम के बैठ जाने का लक्षण है।
४८६- चित्त में ध्यान न हो तो न सही, पर वाणी में तो हो-यह नाम-स्मरण की पहली सीढ़ी है।
४८७- हे हरि ! तुम्हारे प्रेम-सुख के सामने वैकुण्ठ बेचारा क्या है?
४८८- धन्य है, वह काल जो गोविन्द के सङ्कल्प-वहन करता हुआ आनन्दरूप होकर बहा जा रहा है।
४८९- गुण गाते हुए, नेत्रों से रूप देखते हुए तृप्ति नहीं होती। प्रभु मेरे कितने सुन्दर हैं, जल-भरे मेघ-जैसी श्याम कान्ति कैसी शोभा देती है। सब मङ्गलों का यह सार है, सुख-सिद्धियों का भंडार है, यहाँ सुख का क्या वारपार है।
४९०- मुख में नाम हो तो चरणों में मुक्ति लोटती है। बहुतों को इसकी प्रतीति हो चुकी है।
४९१- जीभ को एक बार नाम की चाट लग जानी चाहिये, फिर प्राण जाने पर भी नाम को वह नहीं छोड़ती। नाम चिन्तन में ऐसा विलक्षण माधुर्य है।
४९२- चीनी और मिठास जैसे एक हैं, वैसे ही नाम और नामी भी एक ही हैं, पर वह अनुभव नाम स्मरणानन्द भोगने वालों को ही प्राप्त होता है।
४९३- नाम-चिन्तन से जन्म-जरा-भय-व्याधि छूट जाते हैं, भवरोग सदा के लिये नष्ट हो जाता है, संसार-पाश छिन्न-भिन्न हो जाता है।
४९४- हरि-प्रेम का चसका बढ़ने से रसना रसीली हो जाती है। इन्द्रियों की दौड़ थम जाती है, अनुपम सुख स्वयं घर ढूँढता हुआ चला आता है।
४९५- जब हरिप्रेम का चसका लगता है, तब एक हरि के सिवा और कुछ भी नजर नहीं आता।
४९६- नाम लेते मन शान्त होता है, जिह्वा से अमृत झरने लगता है और लाभ के बड़े अच्छे शकुन होते हैं।
४९७- जहाँ भी बैठें, खेलें, भोजन करें, वहाँ तुम्हारे नाम गायेंगे। राम-कृष्ण के नाम की माला गूंथकर गले में डालेंगे।
४९८- आसन, शयन, भोजन, गमन, सर्वत्र सब कामों में श्रीहरि का सङ्ग रहे। गोविन्द से यह अखिल काल सुकाल है।
४९९- अब भगवान को छोड़ और कुछ बोलना ही नहीं है। बस, यही एक नियम बना लिया है। काम, क्रोध भी भगवान को दे चुका है।
५००- वही अन्न पवित्र है, जिसका भोग हरिचिन्तन में है, वही भोजन स्वादिष्ट है जिसमें श्रीहरि मिश्रित हैं।

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