५०१- तुम्हारा यह श्रीमुख हे हरि ! ऐसा दीखता है जैसे सुख का ही ढला हुआ हो, इसे देख मेरी भूख-प्यास हर जाती है। तुम्हारे गीत-गाते-गाते रसना मीठी हो गयी। चित्त तृप्त हो गया।
५०२- तुम्हारे कोमल चरण चित्त में धारण कर लिये, कण्ठ में नाम की एकावली डाल ली। काया शीतल हुई, चित्त पीछे फिरकर विश्रान्ति-स्थान में पहुँच गया, अब आगे संसार की ओर नहीं आता है। मेरे सब हौसले पूरे हुए। सब कामनाएँ श्रीगोपाल ने पूरी कर दी।
५०३- नाम लेने से कण्ठ आर्द्र और शरीर शीतल होता है। इन्द्रियाँ अपना व्यापार भूल जाती हैं। यह मधुर सुन्दर नाम अमृत को भी मात करता है। इसने मेरे चित्त पर अधिकार कर लिया है। प्रेम रस से शरीर की कान्ति को प्रसन्नता और पुष्टि मिली । यह नाम ऐसा है कि इससे क्षणमात्र में विविध ताप नष्ट होते हैं।
५०४- यह नामस्मरण ऐसा है, कि इससे श्रीहरि के चरण चित्त में, रूप नेत्रों में और नाम मुख में आता है तथा यह जीव को हरि प्रेम का आनन्दामृत पान कराकर उसका जीवत्व हर लेता है। तब हरि ही रह
जाते हैं।
५०५- नामस्मरण से यह चीज ज्ञात हुई जो अज्ञात थी। वह दिखायी देने लगा जो पहले नहीं देखा गया, वह वाणी निकली जो पहले मौन थी, वह मिलन हुआ जो पहले चिर-विरहमें छिपा था और यह सब आप-ही-आप हो गया।
५०६- भजन की ओर चित्त ज्यों-ज्यों झुकता है, त्यों-त्यों भगवत्सान्निध्यका पता लगता है। पर यह अनुभव उसी को मिल सकता है, जो इसे करके देखे।
५०७- श्रीहरि की शपथ नाम को छोड़ उद्धार का और कोई उपाय मेरे नहीं हैं।
५०८- चारों वेद, छहों शास्त्र और अठारहों पुराणका सार-तत्त्व सुनाता हूँ, वह है श्रीराम का नाम ।
५०९- नर-जन्म की सार्थकता भगवान के मिलन में ही है।
५१०- भगवान की भक्ति से ही भगवान का रूप दिखायी देता है।
५११- भक्ति का भेद जो जानता है, उसके द्वार पर अष्ट महासिद्धियाँ लोटा करती हैं, 'जाओ' कहने से भी नहीं जाती।
५१२- सब रास्ते सँकरे हो गये, कलि में कोई साधन नहीं बनता। भक्ति का पंथ बड़ा सुलभ है। इस पंथ में सब कर्म श्रीहरि के समर्पित होते हैं, इससे पाप-पुण्य का दाग नहीं लगता और जन्म-मृत्यु का बन्धन कट जाता है।
५१३- भक्ति-मार्ग पर चलने वाले के सहायक स्वयं श्री भगवान् होते हैं।
५१४- दोनों हाथ उठाकर भगवान् पुकारकर कहते हैं कि मेरे जो भक्त हैं, उनका मैं ही सहायक हूँ-'न मे भक्तः प्रणश्यति'।
५१५- भक्ति-मार्ग ही ऐसा मार्ग है कि जीव अनन्य भाव से भगवान की शरण में जब जाता है, तब भगवान् उसे गोद में उठा लेते हैं
५१६- जप करो, तप करो, अनुष्ठान करो, यज्ञ-योग करो, संतोंने जो-जो मार्ग चलाये हैं, उन सबको चलाओ।
५१७- संतों के वचनों को सत्य मानकर नारायण की शरण में साप जाओ।
५१८- प्रेम बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, उठाकर हाथ पर रखा नहीं जा सकता।
५१९- प्रेम चित्त का अनुभव है, इसे चित्त ही जान सकता है।
५२०- भगवान का चिन्तन करना, उनका नाम लेना, उनके रुप में तन्मय हो जाना ही मेरा तप है, यही मेरा योग, यही मेरा यज्ञ, यही मेरा ज्ञान, यही मेरा जप-ध्यान, यही मेरा कुलाचार और यही मेरा
सर्वस्व है।
५२१- कर्म-ज्ञान-योग में जो-जो कमी हो उसकी पूर्ति हरि प्रेमसे हो जाती है, इसलिये भक्ति-योग ही सबसे श्रेष्ठ योग है। नारायण भक्ति के वश होते हैं।
५२२- भक्ति-प्रेम-सुख औरों से नहीं जाना जाता; चाहे वे पण्डित, बहुपाठी या ज्ञानी हों। आत्मनिष्ठ जीवन्मुक्त भी हों तो भी उनके लिये भक्ति-सुख दुर्लभ है। नारायण यदि कृपा करें, तो ही यह रहस्य जाना जा सकता है।
५२३- सगुण और निर्गुण दोनों ही जिसके अङ्ग हैं, वही हमारे संग खेला करता है।
५२४- सगुण का स्वरूप देखते ही भूख-प्यास भूल जाती है और मन प्रेममय हो जाता है।
५२५- दीपक हाथ में ले लेने से घर में सब जगह उजाला हो जाता है। वैसे ही प्रभु की मूर्ति जब ध्यान में बैठ जाती है, तब समग्र चैतन्य दृष्टि में समा जाता है।
५२६- भगवान की मूर्ति का दर्शन, स्पर्श, मूर्ति का दर्शन, स्पर्श, भजन-पूजन, कथन-कीर्तन, मनन-चिन्तन करते रहने से जिन उपास्य देव की वह मूर्ति है, वह उपास्य देव ध्यान में बैठकर चित्त में खेलने लगते हैं, स्वप्न देकर आदेश सुनाते हैं। ऐसी प्रतीति होती है कि वह पीठपर हैं और उनका प्रेम बढ़ता जाता है, तब उनसे मिलने के लिये जी छटपटाने लगता है, तब प्रत्यक्ष दर्शन भी होते हैं और यह अनुभूति होती है कि वह निरन्तर हमारे समीप हैं और अन्त में यह अवस्था आती है कि अन्दर-बाहर वही हैं और वही सब भूतों के हृदय में हैं। उन्हें छोड़ ब्रह्माण्ड में और कोई नहीं, मेरे अन्दर
वही हैं और मैं भी वही हूँ।
५२७- समरस हुए भक्त भक्ति का आनन्द लूटने के लिये भगवान् और भक्त का द्वैत केवल मन की मौज से बनाये रहते हैं।
५२८- हवा को हिलाकर देखने से वह आकाश से अलग जान पड़ती है, पर आकाश तो ज्यों-का-त्यों ही रहता है, वैसे ही भक्त शरीर से कर्म करता हुआ भक्त-सा जान पड़ता है, पर अन्तःप्रतीति से वह
भगवत्स्वरूप ही रहता है।
५२९- सिद्धान्त अद्वैतका और मजा भक्ति का, यही तो भागवत धर्म का रहस्य है।
५३०- वसुदेवसुत देवकीनन्दन ही सर्वरूपाकार सर्वदिक्-नेत्र और सर्वदेशनिवास परमात्मा हैं और भक्तों की प्रीति के वश अमूर्त होकर भी व्यक्त हुए हैं।
५३१- जैसा जिसका भाव हो, भगवान् वैसे ही हैं।
५३२- मार्ग की प्रतीक्षा करते-करते नेत्र थक गये। इन नेत्रों को अपने चरण-कमल कब दिखाओगे। तुम मेरी मैया हो; दयामयी छाया हो। मेरे लिये तुम्हारा ऐसा कठोर हृदय कैसे हो गया? मेरी बाँहे, हे मेरे प्राणधन हरि ! तुमसे मिलने को फड़क रही हैं।
५३३- हे हरि, हे दीनजनतारक ! तुम्हारा यह सुन्दर सगुणरूप मेरे लिये सब कुछ है। पतितपावन ! तुमने बड़ी देर लगायी, क्या अपना वचन भूल गये? घर-गिरस्ती जलाकर तुम्हारे आँगन में आ बैठा हूँ।
इसकी तुम्हें कुछ सुध ही नहीं है। हे मेरे जीवनसखा ! रिस मत करो, अब उठो और मुझे दर्शन दो।
५३४- जी की बड़ी साध यही है कि तुम्हारे चरणों से भेंट हो। इस निरन्तर वियोग से चित्त अत्यन्त व्याकुल है।
५३५- आत्मस्थितिका विचार क्या करूँ? क्या उद्गार करूँ? चतुर्भुज को देखे बिना धीरज ही नहीं बँध रहा है। तुम्हारे बिना कोई बात हो, यह तो मेरा जी नहीं चाहता। नाथ! अब चरणों के दर्शन कराओ।
५३६- मेरे प्राण ! एक बार मिलो और अपनी छाती से लगाओ।
५३७- ये आँखें फूट जायँ तो क्या हानि है। जब ये पुरुषोत्तम को नहीं देख पातीं। अब प्रभु के बिना एक क्षण भी जीने की इच्छा नहीं।
५३८- अब अपना श्रीमुख दिखाओ, इससे इन आँखों की भूख मिटेगी।
५३९- अब आकर मिलो। पीठ पर हाथ फेरकर अपनी छाती से लगा लो।
५४०- मुझसे आकर मिलोगे, दो-एक बातें करोगे तो इसमें तुम्हारा क्या खर्च हो जायगा?
५४१- जो लोग अरूप की इच्छा करते हों उनके लिये आप अरूप बनिये। पर मैं तो सरूप का प्रेमी हूँ। मैं तो आपके सगुण-साकार रूपरस का प्यासा हूँ।
५४२- आपके चरणों में मेरा चित्त लगा है। मैं तो अज्ञानी ही भला, बच्चा भी कहीं आपसे दूर रहने योग्य बनने के लिये सयानों की बराबरी कर सकता है?
५४३- ज्ञानी पुरुषों की बराबरी मैं अजान होकर कैसे कर सकता हूँ। बच्चा जब सयाना हो जाता है, तब माता उसे रखती है। अजान शिशु तो माता की गोद में ही स्थान पाता है।
५४४- जो ब्रह्मज्ञानी हों उन्हें मोक्ष (छुटकारा) दे दो, पर मुझे मत छोड़ो। मुझे मोक्ष नहीं चाहिये।
५४५- तुम्हारे नाम का जो नेह लगा है, वह अब छूटने वाला नहीं।
५४६- रसना तुम्हारे ही नाम का रसिक हो गयी है, आँखें तुम्हारे ही चरणों के दर्शन की प्यासी हैं। यह भाव अब मेरा बदलने वाला नहीं। इसलिये तुम अब मेरे इस प्रेमरस को सूखने मत दो। अपने से मुझे अब दूर मत करो। मैं तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहता, तुम्हीं को चाहता हूँ।
५४७- ऐसे मौन साधे क्यों बैठे हो। मेरी बात का जवाब दो। मेरा पूर्वसंचित सारा पुण्य तुम हो, तुम्हीं मेरे सत्कर्म हो, तुम्हीं मेरे स्वधर्म हो, तुम्हीं नित्य-नियम हो। हे नारायण ! मैं तुम्हारे कृपा वचनों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
५४८- प्रेमियों के हे प्रियतम ! हे सर्वोत्तम ! मुझसे बोलो । महाराज ! शरणागत को पीठ न दिखाओ, यही मेरी विनय है। जो तुम्हें पुकार रहे हैं, उन्हें चट उत्तर दो; जो दुःखी हैं, उनकी टेर सुनो; उनके पास दौड़े आओ। जो थके हैं उन्हें दिलासा दो और हमें न भूलो, यही तो हे नारायण ! मेरी तुमसे प्रार्थना है।
५४९- कम-से-कम एक बार यही न कह दो कि 'क्यों तंग कर रहे हो, यहाँ से चले जाओ।' हे हरि ! तुम ऐसे निठुर क्यों हो गये।
५५०- साधु-संतों से तुम पहले मिले हो, उनसे बोले हो; वे भाग्यवान् थे, क्या मेरा इतना भाग्य नहीं? आज तक तुमने किसी को निराश नहीं किया; और मेरे जी की लगन तो यही है कि तुमसे मिलूँ, इसके बिना मेरे मन को कल नहीं पड़ती।

No comments: