जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 9

४०१- हरि भक्तों की कोई निन्दा न करे, गोविन्द उसे सह नहीं सकते। भक्तों के लिये भगवान का हृदय इतना कोमल होता है कि वह अपनी निन्दा सह लेते हैं, परन्तु भक्त की निन्दा नहीं सह सकते।


४०२- भक्त के पुकारने की देर है, भगवान के पधारने की नहीं। इसलिये रे मन ! जल्दी कर ।

४०३- उठते-बैठते भगवान को पुकार। पुकार सुनने पर भगवान से फिर नहीं रहा जाता।

४०४- भगवान् भक्त के आगे-पीछे उसे सँभाले रहते हैं, उस पर जो कोई आघात होते हैं, उनका निवारण करते रहते हैं, उसके योग क्षेमका सारा भार स्वयं वहन करते हैं और हाथ पकड़कर उसे रास्ता दिखाते हैं

४०५- भगवान ने जिन्हें अङ्गीकार किया, वे जो निन्द्य भी थे, वन्द्य हो गये।

४०६- भगवद्भक्ति के बिना जो जीना है, उसमें आग लगे। अन्तःकरण में यदि हरि-प्रेम नहीं समाया तो कुल, जाति, वर्ण, रूप, विद्या इनका होना किस काम का? इनसे उल्टे दम्भ ही बढ़ता है।

४०७- भगवान को जो पसंद हो वही शुभ है, वही वन्द्य है और वही उत्तम है। भगवान की मुहर जिस पर लगेगी वही सिक्का दुनिया में चलेगा।

४०८- हरि शरणागति ही सब शुभा-शुभ कर्म बन्धनों से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है। जो शरणागत हुए वे ही तर गये। भगवान ने उन्हें तारा,
उन्हें तारते हुए भगवान ने उनके अपराध नहीं देखे, उनकी जाति या कुल का विचार नहीं किया। भगवान् केवल भावकी अनन्यता देखते हैं।

४०९- अनन्य प्रेम की गङ्गा में सब शुभा-शुभ कर्म शुभ ही हो जाते हैं।

४१०- तुम्हारे नामने प्रह्लाद की अग्नि में रक्षा की, जल में रक्षा की, विष को अमृत बना दिया। इस अनाथ के नाथ तुम हो यह सुनकर मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ।

४११- भगवान् यदि भक्तपर दुःख के पहाड़ ढाह दें, उनकी घर-गृहस्थी का सत्यानाश कर डालें तो भक्त और भी उत्सुकता, उमंग और भक्तिपूर्वक उनका भजन करेंगे।

४१२- जिससे भगवान् मिलें वह लोकदृष्टि में हेय-कर्म हो तो भी करें, जिससे भगवान् छूट जायँ वह शुभ दीखने वाला कर्म भी न करें।

४१३- भगवत्प्राप्ति का मुख्य साधन नामस्मरण है। नामस्मरणसे असंख्य भक्त तर गये।

४१४- भक्तों के लिये हे भगवन्! आपके हृदय में बड़ी करुणा है, यह बात अब मेरी समझ में आ गयी। हे कोमलहृदय हरि ! आपकी दया असीम है।

४१५- प्रेम में जो तड़पन, व्यथा, विकलता और रुदन आदि होते हैं, वे सभी रति-प्रगाढ़ प्रीति के अनुभाव हैं। प्रेम के आँसू वरदान हैं और शोक के आँसू अभिशाप।

४१६- भगवान् कल्पवृक्ष हैं, चिन्तामणि हैं। चित्त जो-जो चिन्तन करे, उसे पूरा करनेवाले हैं।

४१७- जिसे गुरु का अनुग्रह मिला हो, गुरु से वाके परमानन्द का जिसने भोग किया हो, वही उसकी माधुरी जान सकता है।

४१८- गुरु कृपा के बिना कोई साधक कभी कृत कार्य नहीं हुआ। श्रीगुरु के चरण-धूलि में लोटे बिना कोई भी कृतकृत्य नहीं हुआ। श्रीगुरु
बोलते-चालते ब्रह्म हैं।

४१९- सद्गुरु शिष्यों के नेत्रों में ज्ञानाञ्जन लगाकर उसे दृष्टि देते हैं। ऐसे सद्गुरु बड़े भाव से जब मिलें, तब अत्यन्त नम्रता, विमल सद्भाव और दृढ़ विश्वास के साथ उनकी शरण लो; अपना सम्पूर्ण हृदय उन्हें अर्पण करो, उनके प्रति अपने चित्त में परम प्रेम धारण करो, उन्हें प्रत्यक्ष परमेश्वर समझो; इससे भक्तिज्ञान का समुद्र प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाओगे।

४२०- महात्मा सिद्धपुरुष ईश्वर के रूप होते हैं। वे केवल स्पर्श से, एक कृपाकटाक्ष से, केवल संकल्पमात्र से भी श्रद्धासम्पन्न साधक को कृतार्थ करते हैं। पर्वतप्राय पापों का बोझ ढोने वाले भ्रष्ट जीव को भी अपनी दया से वे क्षणार्ध में पुण्यात्मा बना देते हैं।

४२१- भगवान से मिलने की इच्छा करने वाले मुमुक्षु के नेत्र श्रीगुरु ही खोलते हैं।

४२२- गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पूर्वज और वंशज के सम्बन्ध जैसा ही है। श्रद्धा, नम्रता, शरणागति और आदरभाव से शिष्य गुरु का
मन मोह ले, तो भी उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है।

४२३- स्वानुभूति ज्ञान की परम सीमा है। वह स्वानुभूति ग्रन्थों से नहीं प्राप्त हो सकती, पृथ्वी पर्यटन करने से नहीं मिलती। स्वानुभवका
यथार्थ रहस्य श्रीगुरु की कृपा के बिना त्रिकाल में भी नहीं ज्ञात होगा।

४२४- भगवान की कृपा से जब ऐसा भाग्योदय हो कि श्रीगुरु दर्शन दें, तब सर्वान्तःकरण से श्रीगुरु की शरण लो, उनके बालक बनकर अनन्यभाव से उनकी सेवा करो, इससे तुम धन्य होगे।

४२५- संत दुर्लभ तो हैं, पर अलभ्य नहीं। चन्दन महँगा मिलता है, पर मिलता तो है।

४२६- भाग्य श्री का जब उदय होना होता है, तभी संत मिलते हैं।

४२७– मुमुक्षु को गुरु ढूँढ़ना नहीं पड़ता, गुरु ही ऐसे शिष्यों को जो कृतार्थ होने योग्य हुए हो, ढूँढ़ा करते हैं।

४२८- फल के परिपक्व होते ही तोता बिना बुलाये ही आकर उस पर चोंच मारता है। उसी प्रकार विरक्त जीव को देखते ही दयाकुल गुरु दौड़े आते हैं और आत्म रहस्य बतलाकर उसे कृतार्थ करते हैं।

४२९- सब संत सद्गुरु स्वरूप ही हैं, तथापि जैसे सब स्त्रियाँ माता के समान होने पर भी स्तन-पान कराने वाली माता एक ही होती है, वैसे ही सब संत सद्गुरु-समान होने पर भी स्वानुभवामृतपान कराने वाली ईश्वर-नियुक्त सद्गुरु माता भी एक ही होती है और मुमुक्षु शिशु जब भूख से व्याकुल होकर रोने लगता है, तब सद्गुरु-माता से एक क्षण रहा नहीं जाता और वह दौड़ी चली आती और शिशु को अमृतपान कराती है।

४३०- गुरु ईश्वर-नियुक्त होते हैं। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अनेक जन्म-जन्मान्तरों से चला आता है और यह गुरु निश्चित समय पर निश्चित शिष्य को कृतार्थ किया करते हैं।

४३१- भूतदया ही संतों की पूँजी है।

४३२- चाभी को दाहिने घुमा रहे हो सो बायें घुमाओ तो ताला खुल जाएगा। जिधर जा रहे हो उधर पीठ फेर दो, आगे न देख पीछे देखो, बाहर की ओर आँख लगाये हो सो अंदर की ओर लगाओ, प्रवाह छोड़ उद्गम की ओर मुड़ो तो सचमुच ही तुम मुक्त, सुखी, ब्रह्मस्वरूप होगे।

४३३- कौन किसको बाँधता है, कौन किसको छुड़ाता है? यह सब सङ्कल्प की माया है।

४३४- मन सरपट भागने वाला घोड़ा है। वैराग्य की लगाम से उसकी चाल काबूमें करके उसे वश में करना होगा। ऐसे दुर्जय मन पर जो सवार होगा, वह बलवानों से भी बलवान् है।

४३५- मन की एक बात बड़ी अच्छी है। जिस चीज का उसे चसका लगता है, उसमें वह लग ही जाता है, इसलिये इसे आत्मानुभव का सुख बराबर देते रहना चाहिये।

४३६- एक ओरसे वैराग्य की धूनी रमाकर चित्त से विषयों का त्याग करना और दूसरी ओर से हरि-चिन्तन का आनन्द लेना, इस प्रकार वैराग्य और अभ्यास दोनों अस्त्र-शस्त्रों की मार से मनोदुर्गदलन करना होता है।

४३७- ऐसा वैराग्य दृढ़ करना चाहिये, कि मन विषयों से ऊब जाय और दूसरी ओर से उसे परमार्थ का चसका लगाते हुए हरिभजन में समाधि
देनी चाहिये।

४३८- मन से ही मन को मारना, हरिभजन में लगाकर उन्मन करना, हरिस्वरूप में मिलाकर मन को मन की तरह रहने देना यही तो मनोजय है।

४३९- इस मन की एक उत्तम गति है। यदि यह कहीं परमार्थ में लग गया तो चारों मुक्तियों को दासियाँ बना छोड़ता है और परब्रह्म को बाँधकर हाथ में ला देता है। इतना बड़ा लाभ मन के वश करने से होता है।

४४०- उत्तम गति अथवा अधोगति देने वाला मन है। मन ही सबकी माता है। मन को छोड़कर और कोई खास हेतु नहीं है। अतः पहले इसे प्रसन्न-निर्मल कर लो।

४४१- मन को प्रसन्न करना उसे विषय-प्रवाह से खींचकर हरिभजन के लंगर में बाँधना है। मन की बड़ी रखवाली करनी पड़ती है, यह जहाँ-जहाँ जांए, वहाँ-वहाँ से इसे बड़ी सावधानी के साथ खींच लेना पड़ता है।

४४२-नित्य जागकर इस मन को सँभालना पड़ता है। मदोन्मत्त हाथी जैसे अंकुश के बिना नहीं सँभलता, वैसे ही यह चञ्चल मन अखण्ड सावधान रहे, बिना ठिकाने नहीं रहता।

४४३- एक क्षण में पचासों जगह चक्कर लगा आने वाले इस मन को भगवान् दया करें, तो ही रोक सकते हैं।

४४४- यह मन संसार की बातें ही सोचता रहता है। हे भगवन् ! मेरे-तेरे बीच यही एक बड़ी भारी बाधा है। मैं तो भजन-पूजन करता हूँ, पर अंदर मन संसार का ही ध्यान करता रहता है। हे नारायण !
आओ, दौड़ आओ तुम्हीं इस अन्तर में आकर भरे रहो।

४४५- इस मन के कारण, हे भगवन् ! मैं बहुत ही दुःखी हूँ। क्या मन के इन विकारों को तुम रोक नहीं सकते?

४४६- मेरा मन ऐसा चञ्चल है कि एक घड़ी, एक पल भी स्थिर नहीं रहता। अब हे नारायण ! तुम्हीं मेरी सुधि लो, मुझ दीन के पास दौड़े आओ।

४४७- इस मन को बहुत रोको, बंद कर रखो तो यह खीज उठता है, फिर चाहे जिधर भागता है। इसे भजन प्रिय नहीं, श्रवण प्रिय नहीं, विषय देखकर उसी ओर भागता है। सोते-जागते इसे कब कहाँ तक रोका जाय ! हे हरि ! अब तुम्हीं मेरी रक्षा करो।

४४८- देखता यह हूँ कि यह मन तो बेबस, विषय-लोभी है। इस उलझन को कैसे सुलझाऊँ ? हे भगवन् ! क्या आप मेरी असमर्थता नहीं जानते?

४४९- आपके बिना इस मन का दूसरा कौन चालक है, हे नारायण ! यह तो बताइये।

४५०- मन का निरोध करता हूँ, पर विकार नष्ट नहीं होता। ये विषय द्वार बड़े ही दुस्तर हैं। यदि आप अंदर में भरे रहते तो मैं निर्विषय होकर तदाकार हो जाता।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 9 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 9 Reviewed by Vishant Gandhi on October 28, 2020 Rating: 5

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