५५१- अब तुम्हारी ही शरण ली है; क्योंकि तुम्हारा कोई भी दास विफल मनोरथ नहीं हुआ।
५५२- अकाल पीड़ित भूखे के सामने मिष्टान्न परोसा हुआ थाल आ जाय अथवा घात में बैठी हुई बिल्ली मक्खन का गोला देख ले, तो उसकी जो हालत होती है, वही मेरी हालत हुई है। तुम्हारे चरणों में मन ललचाया है, मिलने के लिये प्राण सूख रहे हैं।
५५३- तुम्हारे बिना हे प्राणेश्वर ! मुझ पर ममत्व रखने वाला इस विश्व में और कौन है ? किससे हम अपना सुख-दुःख कहें, कौन हमारी भूख-प्यास बुझायेगा?
५५४- हमारे ताप को हरने वाला और कौन है? हम अपना सवाल किससे लगावें? कौन हमारी पीठपर प्यार से हाथ फेरेगा?
५५५- दौड़ी आओ, मेरी मैया ! अब क्या देखती हो? अब धीरज नहीं रहा। वियोग से व्याकुल हो रहा हूँ। अब जी को ठंडा करो, अब तक रोते ही बीता है। कब यह मस्तक तुम्हारे चरणों में रखूगा, यही एक ध्यान है।
५५६- सोलह हजार तुम बन सकते हो, सोलह हजार नारियों के लिये तुम सोलह हजार रूप धारण कर सकते हो, पर इस अधम के लिये एक रूप धारण करना भी तुम्हारे लिये इतना कठिन हो गया है।
५५७- भगवन् ! तुम्हारी उदारता मैं समझ गया। मैं तो तुम्हारे चरणों पर मस्तक रखू और तुम अपने गले का हार भी मेरी अञ्जलि में न डालो। हाँ, समझा ! जो छाछ भी नहीं दे सकता, वह भोजन क्या करावेगा।
५५८- द्वारपर खड़ा मैं कब से पुकार रहा हूँ, पर 'हाँ' तक कहने की जरूरत आप नहीं समझते? कोई अतिथि आ जाय, तो शब्दों से उसको संतोष दिलाने में क्या खर्च हुआ जाता है ?
५५९- भगवन् ! तुम भरमाने-भटकाने में बड़े कुशल हो, तो मैं भी बड़ा अड़ियल हूँ। तुम्हें मौन साधे बैठे रहना ही अच्छा लगता है तो क्या इतने से ही मैं तुम्हारा पल्ला छोड़ दूंगा?
५६०- सचमुच ही परमात्मन् ! तुमसे ही तो मैं निकला हूँ। तब तुम से अलग कैसे रह सकता हूँ?
५६१- भगवन् ! तुम्हारे प्रेम की खातिर, तुम्हारी एक बात के लिये, तुम्हारे दर्शन पाने के लिये मैं क्या नहीं कर सकता ! पर आज्ञा तो दो, कुछ बोलो तो।
५६२- मेरा चित्त तुम से मिलने के लिये छटपटा रहा है और तुम ऐसे हो कि शायद देख रहे हो ! मैं दोषी हूँ, अपराधी हूँ, पापी हूँ, इसलिये मुझ पर क्रोध मत करो। इस अनजान बालक को रुलाओ मत ।
५६३- अपने को पापी कहूँ तो आपके चरणों का स्मरण करता हूँ। मेरा पाप क्या आपके चरणों से भी अधिक बलवान् है?
५६४- भगवन् ! हम विष्णुदास हैं। हमारा सब बल-भरोसा तुम हो। पर इस काल को देखता हूँ। हमारे ही ऊपर हुकूमत चला रहा है।
५६५- भगवन् ! मैं तो आपका बच्चा हूँ न ? बच्चे से क्या जोर अजमाना? देखो, दीनानाथ ! अपने विरद की लाज रखो ।
५६६- भगवन् ! अब मेरा तिरस्कार करते हो? ऐसा ही करना था, तो पहले अपने चरणों का स्नेह क्यों दिया? हमारे प्राण ही लेने थे, तो दृष्टि में ही क्यों आये?
५६७- भगवन् ! मैंने अपना सम्पूर्ण शरीर आपके चरणों में समर्पित किया है और आप क्या मेरा छूत मानते हैं या मेरे सामने आते हुए लजाते हैं ? हृदयेश ! प्रेम-दानकर मुझे मना लो।
५६८- आपके चरणों में क्या जोर अजमाऊँ? मेरा तो यही अधिकार है, कि दास होकर करुणा की भिक्षा माँगें।
५६९- तुम्हारे श्रीमुख के दो शब्द सुन पाऊँ, तुम्हारा श्रीमुख देख लूँ, बस, यही एक आस लगी है।
५७०- भगवन् ! मुझसे आप कुछ बोलते नहीं। क्यों इतना दुखी कर रहे हैं। प्राण कण्ठ में आ गये हैं। मैं आपके वचन की बाट जोह रहा हूँ। मैं भगवान का कहाता हूँ और भगवान से ही भेंट नहीं। इसकी मुझे बड़ी लज्जा आती है।
५७१- भगवन् ! मेरे प्रेम का तार मत तोड़ो। आपकी कृपा होने पर मैं ऐसा दीन-हीन न रहूँगा । पेट भरने पर क्या संसार से कहना पड़ता है कि मेरा पेट भरा ? तृप्ति चेहरे से ही मालूम हो जाती है, चेहरे की प्रसन्नता ही उसकी पहचान है।
५७२- सती को वस्त्रालङ्कार पहनाकर चाहे जितना सिंगारिये, पर जब तक पतिका सङ्ग उसे नहीं मिलता, तब तक वह मन-ही-मन कुढ़ा करती
है, वैसे ही तुम्हारे दर्शन बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
५७३- भगवन् ! तुमसे यदि मेरी प्रत्यक्ष भेंट नहीं हुई और कोरी बातें ही करते रहे, तो ये संत मुझे क्या कहेंगे। इसको भी तनिक विचारो !
५७४- जिसने भगवान के साक्षात् दर्शन नहीं किये, संतों में उसकी मान्यता नहीं। संत और भक्त वही है जिसे भगवान का सगुण-साक्षात्कार हुआ हो। भोजन के बिना तृप्ति कहाँ ?
५७५-भगवान् आलिङ्गन देकर प्रीति से इन अङ्गों को शान्त करेंगे और अमृत की दृष्टि डालकर मेरे जी को ठंडा करेंगे। गोद में उठा लेंगे और भूख-प्यास भी पूछेगे और पीताम्बर से मेरा मुँह पोंछेगे। प्रेम से मेरी ओर देखते हुए मेरी ठुड्डी पकड़कर मुझे सान्त्वना देंगे। मेरे माँ-बाप हे विश्वम्भर ! अब ऐसी ही कुछ कृपा करो !
५७६- मेरे माँ-बाप ! मुझे प्रत्यक्ष बनकर दिखाइये। आँखों से देख लूँगा। तब तुमसे बातचीत भी करूँगा, चरणों में लिपट जाऊँगा । फिर चरणों में
दृष्टि लगाकर हाथ जोड़कर सामने खड़ा रहूँगा । यही मेरी उत्कट वासना है। नारायण ! मेरी यह कामना पूरी करो।
५७७-अभिलाषा मेरी यह है कि आपकी-मेरी बातचीत हो और उससे सुख बढ़े ! आँखें भरकर आपका श्रीमुख देखू। यह मैं आपके चरणों की साक्षी रखकर सच-सच कहता हूँ।
५७८- तुम्हारा प्रेम-सुख छोड़कर हम जीवन्मुक्त किसलिये हों ? कौन ऐसा अभागा होगा जो इसे लात मार दे?
५७९- हे गोपिकारमण ! अब मुझे अपना रूप दिखाओ, जिसमें मैं अपना मस्तक आपके चरणों पर रखू। तुम्हारा श्रीमुख देखूगा। तुम्हें आलिङ्गन करूँगा, तुम्हारे ऊपर से राई-नोन उतारूँगा। तुम पूछोगे तब अपनी सब बात कहूँगा। एकान्त में बैठकर तुमसे सुख की बातें करूँगा।
५८०- मुझ अनाथ के लिये हे नाथ ! अब तुम एक बार चले ही आओ।
५८१- तुम्हारे लिये जीव तड़फ रहा है। हृदय अकुला रहा है। चित्त तुम्हारे चरणों में लगा है। तुम्हारे बिना अब रहा नहीं जाता ।
५८२- गरुड़ के पैरों पर बार-बार मस्तक रखता हूँ। हे गरुड़जी ! उन हरि को शीघ्र ले आइये, मुझ दीन को तारिये। भगवान के चरण जिन लक्ष्मीजी के हाथों में हैं; उनसे गिड़गिड़ाता हूँ कि हे लक्ष्मीजी ! उन हरि को शीघ्र ले आइये और मुझ दीन को तारिये। हे शेषनाग ! आप हृषीकेश को जगाइये।
५८३- हे नारायण ! तुम्हें उन गोपालों ने अपने पुण्यवान् नेत्रों से कैसा देखा होगा। उनके उस सुख के लोभ से मेरा मन ललचाया है। मुझे वह आनन्द कब मिलेगा? तुम्हारे श्रीमुख की ओर टकटकी लगाये रहने का आनन्द कैसा होगा? अनुभव के बिना मैं उसे कैसे जानूँ ? तुम्हारा रूप इन आँखों से कब देखूगा? तुम्हारे आलिङ्गन का आनन्द कब लाभ करूँगा, चित्त प्रतिक्षण यही सोचता है।
५८४- वह श्यामघननील, उनका वह पीताम्बर, वह मुकुट, वे कुण्डल, वह चन्दन की खौर, वह निर्मल कौस्तुभमणि और वह वैजयन्ती माला, वह सुखनिर्मित श्रीमुख, ऐसे वह सुकुमार मदन-मूर्ति श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं और उनके सखा गोपाल अनिमेष लोचनों से उनके सुन्दर मुख कमल की ओर आनन्दानुभव से स्थिर होकर देख रहे हैं, यह सम्पूर्ण दृश्य नेत्रों के सामने नाच रहा है।
५८५- अपने नेत्रों से श्रीकृष्ण को जी भर कब देखूंगा, श्रीकृष्ण अपनी बाँहों से मुझे कब अपनी छाती से लगावेंगे, प्रतिक्षण मेरे चित्त में यही लालसा लगी रहती है।
५८६- निगम के वन में भटकते-भटकते क्यों थके जा रहे हो? ग्वालों के घर चले आओ, यहाँ वह रस्सी से बँधे हैं।
५८७- गीता का जिन्होंने उपदेश किया वही मेरे कन्हैया यहाँ खड़े हैं।
५८८- तुम्हारा श्रीमुख और श्रीचरण मैं देखूगा-जरूर देखूंगा। उसी में मन लगा अधीर हो उठा है। पाण्डवों को जब-जब कष्ट हुआ, तब-तब स्मरण करते ही तुम आ गये। द्रौपदी के लिये तुमने उसकी चोली में गाँठ बाँध दी। गोपियों के साथ कौतुक करते हो, गौओं और ग्वालों को सुख देते हो, अपना वही रूप मुझे दिखा दो। तुम तो अनाथ के नाथ और शरणागतों के आश्रय हो। मेरी यह कामना पूरी करो।
५८९- कृष्ण ही मेरी माता हैं, कृष्ण ही मेरे पिता हैं, जी के जीवन एक कृष्ण ही हैं।
५९०- अनन्त ब्रह्माण्ड जिसके उदर में हैं, वह हरि नन्द के घर बालक हैं।
५९१- अंदर हरि, बाहर हरि, हरि ने ही अपने अंदर बंद कर रखा है।
५९२- कटि में सुवर्णाम्बर सुशोभित हो रहा है और गले में पैरों तक वनमाला लटक रही है, उन सुन्दर मधुर घनश्याम को देखते हुए नेत्रों से मानों प्राण निकल पड़ते हैं।
५९३- श्रीकृष्ण लीलाविग्रह हैं, उनका शरीर लोकाभिराम और ध्यान-धारण मङ्गलप्रद हैं। वेदों का जन्मस्थान, षट्शास्त्रों का समाधान, षड्दर्शनों की पहेली-ऐसा यह श्रीकृष्ण का पूर्णावतार है।
५९४- भक्ति का रहस्य जानना हो तो आओ, श्रीवृन्दावन-लीला का आश्रय करो।
५९५- चारों वेद जिसकी कीर्ति बखानते हैं, योगियों के ध्यान में जो एक क्षण-भर के लिये भी नहीं आता, वह ग्वालिनों के हाथ बँध जाता है, भावुक ग्वालिने उसे पकड़ रखती हैं । इन भक्तिनों के पास वह गिड़गिड़ाता हुआ आता है और सयाने कहते हैं कि वह तो मिलता ही नहीं।
५९६- इन भोरी अहीरिनों के पूर्वपुण्य का हिसाब कौन लगा सकता है, जिन्होंने मुरारि को खेलाया- अन्तःसुख से खेलाया और बाह्यसुख से भी उन्हें पाकर अपने को अर्पण कर दिया । भगवाने ने उन्हें अन्तःसुख दिया, जिन्होंने एकनिष्ठभाव से उन्हें जाना। श्रीकृष्ण में जिनका तन-मन लग गया, जो घर-द्वार और पति-पुत्र तक को भूल गयी, जिनके लिये धन, मान और स्वजन विष-से हो गये, वे एकान्तवन में भगवान के साथ जा मिलीं।
५९७- देह की सारी भावना, सारी सुध-बुध बिसार दी; तब वही नारायण की सम्पूर्ण पूजा-अर्चा है । ऐसे भक्तों की पूजा भगवान्, भक्तों के जाने बिना ले लेते हैं और उनके माँगे बिना उन्हें अपना ठाँव दे देते हैं।
५९८- उन ग्वालिनों का भी कैसा महान् पुण्य था, वे गाय, बछड़े और अन्य पशु भी कैसे भाग्यवान् थे। ग्वालिनों को जो सुख मिला वह दूसरों के लिये, ब्रह्मादि के लिये भी दुर्लभ है।
५९९- गोपियाँ रास-रंग में समरस हुईं, उसी प्रकार हमारी चित्त-वृत्तियाँ श्रीकृष्ण प्रेम में सराबोर हो जायें।
६००- भक्तसमागम से सब भाव हरि के हो जाते हैं, सब काम बिना बताये हरि ही करते हैं। हृदय सम्पुट में समाये रहते हैं और बाहर छोटी-सी मूर्ति बनकर सामने आते हैं।

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