जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 13

६०१- श्रीहरि सब भूतों में रम रहे हैं, जल, थल, काठ, पत्थर सब में विराज रहे हैं; पृथ्वी, जल, अग्नि, समीर, गगन-इन पञ्च महाभूतों को और
स्थावर-जङ्गम सब पदार्थों को व्यापे हुए हैं। उनके सिवा ब्रह्माण्ड में दूसरी कोई वस्तु ही नहीं, यही शास्त्र-सिद्धान्त है और यही संतों का अनुभव है।


६०२- मनुष्य किसी भी वर्ण या जाति में पैदा हुआ हो, वह यदि सदाचारी और भगवद्भक्त है, तो वही सबके लिये वन्दनीय और श्रेष्ठ है। कसौटी जाति नहीं है, कसौटी है साधुता-भगवद्भक्ति।

६०३- मैं अपना दोष और अपराध कहाँ तक कहूँ ? मेरी दयामयी मैया ! मुझे अपने चरणों में ले ले। यह संसार अब बस हुआ। अब मेरा चिन्ता-जाल काट डालो और हे हृदयधन ! मेरे हृदय में आकर अपना
आसन जमाओ।

६०४- अपना चित्त शुद्ध हो, तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं; सिंह और साँप भी अपना हिंसा भाव भूल जाते हैं, विष अमृत हो जाता है, आघात हित होता है, दुःख सर्व सुख स्वरूप फल देने वाला बनता है, आग की लपट ठंडी-ठंडी हवा हो जाती है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसको सब जीव अपने जीवन के समान प्यार करते हैं। कारण, सबके अन्तर में एक ही भाव है।

६०५- आघात करने वाला लोहा भी पारस के स्पर्श मात्र से सोना हो जाता है। दुष्टजन भी संतों के स्पर्श में आकर संत बन जाते हैं।

६०६- जो कोई नारायण का प्रिय हो गया, उसका उत्तम या कनिष्ठ वर्ण क्या? चारों वर्गों का यह अधिकार है, उसे नमस्कार करने में कोई दोष
नहीं।

६०७- चित्त की उलटी चाल में मैं फँस गया था, मृग जलने मुझे भी धोखा दिया था, पर भगवान ने बड़ी कृपा की जो मेरी आँखें खोल दीं। तुमने मेरी गुहार सुनी, इससे मैं निर्भय हो गया हूँ।

६०८- प्रभु अपने भक्त को दुःखी नहीं करते, अपने दास की चिन्ता अपने ही ऊपर उठा लेते हैं। सुखपूर्वक हरि का कीर्तन करो, हर्ष के साथ हरि के गुण गाओ। कलिकाल से मत डरो, कलिकाल का निवारण तो सुदर्शनचक्र आप ही कर लेगा। भगवान् अपने भक्तों को कभी छोड़ते ही नहीं।

६०९- हरि का नाम ही बीज है और हरि का नाम ही फल है। यही सारा पुण्य और सारा धर्म है । सब कलाओं का यही सार मर्म है। निर्लज्ज नाम संकीर्तन में सब रसों का आनन्द एक साथ आता है।

६१०- सब तीर्थो की मुकुटमणि यह हरिकथा है- यह ऊर्ध्ववाहिनी परमामृत की धारा भगवान के सामने बहती रहती है। भगवान पर इस सुधा-धारा का अभिषेक होता रहता है।

६११- संतों का मुख्य कार्य जीवों को मोह-माया की निद्रा से जगा देना होता है। स्वयं जगे रहते हैं, दूसरों को जगा देते हैं, जीवों को अभय दान देते हैं
और उनका दैन्य नष्ट कर उन्हें स्वानन्द साम्राज्य पद पर आरूढ़ करते हैं।

६१२- संतों के उपकार माता-पिता के उपकार से भी अधिक हैं। सब छोटी-बड़ी नदियाँ जिस प्रकार अपने नाम-रूपों के साथ जाकर समुद्र में ऐसी मिल जाती हैं, जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो, उसी प्रकार त्रिभुवन के सब सुख-दुःख संतों के बोध-महार्णव में विलीन हो जाते हैं।

६१३- खोल, खोल, आँखें खोल। बोल अभीतक क्या आँख नहीं खुली ? अरे, अपनी माता की कोख से क्या तू पत्थर पैदा हुआ? तैंने जो यह नर-तनु पाया है, यह बड़ी भारी निधि है, जिस विधि से कर सके इसे सार्थक कर। संत तुझे जगाकर पार उतर जायँगे, तू भी पार उतरना चाहे तो कुछ कर।

६१४- अनेक योनियों में भटकने के बाद यह नर-नारायण की जोड़ी मिली है। नर-तनु-जैसा ठाँव मिला है, नारायण में अपने चित्त का भाव लगा।

६१५- सुन रे सजन ! अपने स्वहित के लक्षण सुन। मन से गोविन्द का सुमिरन कर, नारायण का गुणगान कर, फिर बन्धन कैसा?

६१६- जो मन करेगा वही पाओगे। अभ्यास से क्या नहीं होता?

६१७- श्रीहरि की शरण में जाओ, उन्हीं के होकर रहो, उनके गुणगान में मग्न हो जाओ, संसार जो हुआ बनकर सामने आया है, इसे भगा दो और इसी देह से, इन्हीं आँखों से मुक्ति का आनन्द लूटो।

६१८- दिन-रात का पता नहीं। यहाँ तो अखण्ड ज्योति जगमगा रही है। इसका आनन्द जैसे हिलोरें मारता है; उसके सुख का वर्णन कहाँ तक करूँगा।

६१९- श्रीहरि के प्रसाद से सब दुःख नष्ट हो जाते हैं। यही भवरोग की ओषधि है। जन्म, जरा, सब व्याधि और मृत्यु इससे दूर हो जाती हैं। उस श्याम सुन्दर की छबि को अपनी आँखों देख लो, कुटिल,
खल कामियों का स्पर्श अपने को न होने दो। मुख से निरन्तर विष्णु सहस्र नाम की माला फेरते रहो।

६२०- बहुत बोलना छोड़ दो और सावधान होकर कुसङ्ग से बचते रहो।

६२१- अनुताप करते हुए भगवान से यह कहो, मैं तो अनाथ हूँ, अपराधी हूँ, कर्महीन हूँ, मन्दगति और जडबुद्धि हूँ। हे कृपानिधे ! हे मेरे माता-पिता ! अपनी वाणी से कभी मैंने तुम्हें याद नहीं किया। तुम्हारा गुण-गान भी न सुना और न गाया। अपना हित छोड़ लोक-लाज के पीछे मरा फिरा। हरिकीर्तन, संतोंका सङ्ग कभी मुझे अच्छा नहीं लगा। परनिन्दा में बड़ी रुचि थी, दूसरों की खूब निन्दा की। परोपकार न मैंने किया; न दूसरों से कभी कराया। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में कभी दया न आयी। ऐसा व्यवसाय किया जो न करना चाहिये और उससे पाया तो क्या, अपने कुटुम्ब का भार ढोता फिरा। तीर्थो की कभी यात्रा नहीं की, केवल इस पिण्ड के पालन करने में ही हाथ-पैर मारता रहा। मुझसे न संत-सेवा बनी, न दान-पुण्य बना, न भगवान की मूर्ति का दर्शन और पूजन-अर्चन ही बना। कुसङ्ग में पड़कर अनेक अन्याय और अधर्म किये। मैंने अपना-आप ही
सत्यानाश किया, मैं अपना-आप ही वैरी बना। भगवन् ! तुम दया के निधान हो, मुझे इस भव सागर के पार उतारो !

६२२- भवसागर को तैरकर पार करते हुए चिन्ता किस बात की करते हो? उस पार तो 'वह' कटिपर कर धरे खड़े हैं। जो कुछ चाहते हो उसके वही तो दाता हैं। उनके चरणोंमें जाकर लिपट जाओ! वह
जगत्स्वामी तुमसे कोई मोल नहीं लेंगे, केवल तुम्हारी भक्ति से ही तुम्हें अपने कंधे पर उठा ले जायेंगे। प्रभु जहाँ प्रसन्न हुए तहाँ भुक्ति और मुक्ति की चिन्ता क्या ? वहाँ दैन्य और दारिद्र्य कहाँ ?

६२३- संसार में बने रहो, पर हरि को न भूलो।हरि नाम जपते हुए न्याय-नीति से सब काम करते चलो। इससे संसार भी सुखद होता है।

६२४- सुख-यव-बराबर है तो दुःख पहाड़-बराबर। संसार के विषय में सबका यही अनुभव है। माँ-बाप, स्त्री-पुत्र, संगी-साथी, धन-दौलत, राजा-महाराजा कोई भी हमें क्या मृत्यु से बचा सकता है ? यह शरीर तो कालका कलेवा है।

६२५- कौड़ी-कौड़ी जोड़कर करोड़ रुपये इकट्ठे करो, पर साथ तो एक लँगोटी भी न जायेगी।

६२६- संगी-साथी एक-एक करके चले। अब तुम्हारी भी बारी आवेगी। क्या गाफिल होकर बैठे हो? काल सिर पर सवार है, अब भी सावधान हो जाओ, इससे निस्तार पाने का कुछ उपाय करो।

६२७- तुम्हारी देह तो नहीं रहेगी, इसे काल खा जाएगा। अब भी जागो, नहीं तो धोखा खाओगे, नशे के बीच मारे जाओगे।

६२८- पर उपकार करो, पर-निन्दा मत करो, परस्त्रियों को माँ-बहन समझो। प्राणिमात्र में दया-भाव रखो।

६२९- घर-गृहस्थी के प्रपञ्च में लगे रहते हुए भी एक बात न भूलनायह क्षणकालीन द्रव्य, दारा और परिवार तुम्हारा नहीं है। अन्तकाल में जो तुम्हारा होगा वह तो एक श्रीहरि ही हैं, उसी को जाकर पकड़ो।

६३०- भगवान को चाहते हो तो चित्त को मलिन क्यों रखते हो? अभिमान, अकड़, आलस्य, लोकलज्जा, चञ्चलता, असद्व्यवहार, मनोमालिन्य इत्यादि कूड़ा-करकट किस लिये जमा किये हुए हो? केवल बाहरी भेष बना लेने से थोड़े ही कोई भक्त होता है।

६३१- आग लगे उस बनावटी स्वाँग में जिसके भीतर कालिमा भरी हुई है। वस्त्रों को लपेटकर पेट बड़ा कर लेने से, गर्भवती होने की बात उड़ाने से, दोहद का स्वाँग भरने से बच्चा थोड़े ही पैदा होता है, केवल हँसी होती है।

६३२- इन्द्रियों का नियमन नहीं, मुख में नाम नहीं, ऐसा जीवन तो भोजन के साथ मक्खी निगल जाना है। ऐसा भोजन क्या कभी सुख दे सकता है?

६३३- संसार की सारी आशाओं और अभिलाषाओं का त्याग किये बिना भगवान् नहीं मिलते ।

६३४- जो जी-जान से भगवान को चाहते हैं, वे अपने प्रेम को सावधानी से बचाये रहें, प्रतिष्ठा को शूकरीविष्ठा समझ लें, वृथा वाद में न उलझें अहंकारी तार्किकों के सङ्ग से दूर रहें और कोई ढोंग-पाखण्ड न रचें।

६३५- स्वाँग बनाने से भगवान् नहीं मिलते। निर्मल चित्त की प्रेमभरी चाह नहीं तो जो कुछ भी करो, अन्त केवल 'आह' है।

६३६- सबके अलग-अलग राग हैं। उनके पीछे अपने मन को मत बाँटते फिरो। अपने विश्वास को जतन से रखो, दूसरे के रंग में न आओ।

६३७- मिलो उन्हीं में जो सर्वतो भाव से समरस में हों, वे ही तुम्हारे कुल-परिवार हैं। वाद-विवाद में पड़ोगे तो फन्दे में फँसोगे।

६३८- भक्तों के मेले का जो आनन्द है, उसका कुछ भी आस्वाद अविश्वासी को नहीं मिलता। वह सिद्धान में कंकड़ी की तरह अलग ही रहता है।

६३९- भगवान की पूजा करो तो उत्तम मन से करो। उसमें बाहरी दिखावे का क्या काम? जिसको जनाना चाहते हो वह अन्तर की बात जानता है। कारण, सच्चों में वही सच है।

६४०- भक्ति की जाति ऐसी है, कि सर्वस्व से हाथ धोना पड़ता है।

६४१- नेत्रों में अश्रु-बिन्दु नहीं, हृदय में छटपटाहट नहीं तो भक्ति काहे की? वह तो भक्ति की विडम्बना है, व्यर्थ का जन-मन-रंजन है। जबतक दृष्टि से दृष्टि नहीं मिली, तबतक मिलन नहीं होता।

६४२- अहंता नष्ट हो, भगवान के स्तुति-पाठ में सच्ची भक्ति हो, हृदय की सच्ची लगन हो, हरि चरणों में पूरी निष्ठा हो तब काम बने।

६४३- सेवक के तन में जबतक प्राण हैं, तबतक स्वामी की आज्ञा ही उसके लिये प्रमाण है।

६४४- भगवान के होकर रहो। ज्ञानलव-दुर्विदग्ध तार्किकों की अपेक्षा अपढ़, अनजान, भोले-भाले लोग ही अच्छे होते हैं। मूर्ख बल्कि अच्छे हैं, वे विद्वान् तार्किक तो किसी काम के नहीं।

६४५- भगवान के लिये सर्वस्व से हाथ धोने को तैयार हो जाना पूर्व-पुण्य के बिना नसीब नहीं होता।

६४६- इस संसार में आये हो तो अब उठो, जल्दी करो और उन उदार प्रभु की शरण में जाओ। यह देह तो देवताओं की है, धन सारा कुबेर का है, इसमें मनुष्य का क्या है ? देने-दिलानेवाला, ले जाने-लिवा ले जानेवाला तो कोई और ही है। इसका यहाँ क्या धरा है; रे मूरख ! क्यों नाशवान के पीछे भगवान की ओर पीठ फेरता है?

६४७- भगवान ने जो इन्द्रियाँ दी हैं, उन्हें भगवान के काम में क्यों नहीं लगा देते? मुख से हरि का कीर्तन करो, कानों से उनकी कीर्ति सुनो, नेत्रों से उन्हीं का रूप देखो। इसी के लिये तो ये इन्द्रियाँ हैं।

६४८- संसार का बोझ सिर पर लादे हुए दौड़ने में बड़े खुश हैं। अरे निर्लज्ज ! अपने संसारीपन पर बैल की तरह इस बोझ के ढोने पर इतना क्यों इतराता है?

६४९- परद्रव्य और परनारी का अभिलाष जहाँ
हुआ वहीं से भाग्य का ह्रास आरम्भ हुआ।

६५०- परस्त्री और परधन बड़े खोटे हैं । बड़े-बड़े इनके चक्कर में मटियामेट हो गये। इन दोनों को छोड़ दे, तभी अन्त में सुख पायेगा।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 13 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 13 Reviewed by Vishant Gandhi on November 01, 2020 Rating: 5

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