५१- पहले ईश्वर-प्राप्ति का यत्न करो, पीछे जो इच्छा हो कर सकते हो।
५२- जो ईश्वर पर निर्भर करते हैं, उन्हें ईश्वर जैसे चलाते हैं, वैसे ही चलते हैं, उनकी अपनी कोई चेष्टा नहीं होती।
५३-गुरु लाखों मिलते हैं, पर चेला एक भी नहीं मिलता। उपदेश करनेवाले अनेकों मिलते हैं, पर उपदेश पालन करने वाले विरले ही रहते है।
५४- ईश्वर का प्रकाश सब के हृदय में समान होने पर भी वह साधुओं के हृदय में अधिक प्रकाशित होता है।
५५- समाधि अवस्था में मन को उतना ही आनन्द मिलता है, जितना जीती मछली को तालाब में छोड़ देने से।
५६- ज्ञान पुरुष है, भक्ति स्त्री है। पुरुष माया, नारी से तभी छूट सकता है, जब वह परम वैरागी हो। किंतु भक्ति से तो माया सहज ही छूटी।
५७- काजल की कोठरी में कितना भी बचकर रहो, कुछ-न-कुछ कसौंस लगेगी ही। इसी प्रकार युवक-युवती परस्पर बहुत सावधानी के साथ रहें, तो भी कुछ-न-कुछ काम जाएगा ही।
५८- जिस प्रकार दर्पण स्वच्छ होने पर उसमें मुँह दिखलायी देने लगता है, उसी प्रकार हृदय के स्वच्छ होते ही उसमें भगवान्का रूप दिखायी देने लगता है।
५९- ईश्वर को अपना समझकर किसी एक भाव से उसकी सेवा-पूजा करने का नाम भक्ति-योग है।
६०- कलियुग में और योगों की अपेक्षा भक्ति-योग से सहज ही ईश्वरकी प्राप्ति होती है।
६१- ध्यान करना चाहते हो, तो तीन जगह कर सकते हो- मन में, घर के कोने में और वन में।
६२- केवल ईश्वर-ज्ञान ही ज्ञान है और सब अज्ञान है।
६३- भगवान् भक्ति के वश हैं, वे अपनी ओर ममता और प्रेम चाहते हैं।
६४- जिस के मन में ईश्वर का प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे संसार का कोई सुख अच्छा नहीं लगता।
६५- जो प्रभु के प्रेम में बावला हो गया है, जिसने अपना सब कुछ उनके चरणों में अर्पण कर दिया है, उसका सारा भार प्रभु अपने ऊपर ले लेते हैं।
६६- संसार में आकर भगवान के विषय में तर्क, युक्ति, विचार आदि करने से कुछ फल नहीं। जो प्रभु को प्राप्त कर आनन्दानुभव कर सकता है, वही धन्य है।
६७- सभी मनुष्य जन्म-जन्मान्तर में कभी-न-कभी भगवान को देखेंगे ही।
६८- सूई के छेद में धागा पहनाना चाहते हो, तो उसे पतला करो। मनको ईश्वर में पिरोना चाहते हो, तो दीन-हीन अकिंचन बनो।
६९- भक्त का हृदय भगवान की बैठक है।
७०- संसार में जो जितना सह सकता है, वह उतना ही महात्मा है।
७१- जिसका मनरूप चुंबकयन्त्र भगवान के चरण-कमलों की ओर रहता है, उसके डूब जाने या राह भूलने का डर नहीं।
७२- साधन की राह में कई बार गिरना-उठना होता है, परंतु प्रयत्न करने पर फिर साधन ठीक हो जाता है।
७३- सर्वदा सत्य बोलना चाहिये। कलिकाल में
सत्य का आश्रय लेने के बाद और किसी साधन का काम नहीं। सत्य ही कलिकाल की तपस्या है।
७४- संसार के यश और निन्दा की कोई परवा न करके ईश्वर के पथ में चलना चाहिये।
७५- एक महात्मा की कृपा से कितने ही जीवों का उद्धार हो जाता है।
७६- साधक के भीतर यदि कुछ भी आसक्ति है तो समस्त साधना व्यर्थ चली जायगी।
७७- जो ईश्वर में नित्य डूबा रहता है, उसकी प्रेम-भक्ति कभी नहीं सूखती। परंतु दो-एक दिन की भक्ति से ही जो संतुष्ट तथा निश्चिन्त रहता है, सीके पर रखे हुए रिसते घड़े के जल के समान वह भक्ति दो दिन बाद ही सूख जाती है।
७८- जगत् में ईश्वर व्याप्त हैं, पर उनके पाने के लिये साधना करनी पड़ती है।
७९- जिस मन से साधना करनी है, वही यदि विषयासक्त हो जाए, तो फिर साधना असम्भव ही समझो।
८०- जल में नाव रहे तो कोई हानि नहीं, पर नाव में जल नहीं रहना चाहिये। साधक संसार में रहे तो कोई हानि नहीं, परंतु साधक के भीतर संसार नहीं होना चाहिये।
८१- मन और मुख को एक करना ही साधना है।
८२- ईश्वर महान् होने पर भी अपने भक्त का तुच्छ उपहार प्रेमपूर्वक प्रसन्न होकर ग्रहण करते हैं।
८३- जिस आदमी की ईश्वर के नाम में रुचि है, भगवान में जिसकी लगन लग गयी है, उसका संसार-विकार अवश्य दूर होगा। उस पर भगवान की कृपा अवश्य-अवश्य होगी।
८४- अपने सब कर्म फल ईश्वर को अर्पण कर दो। अपने लिये किसी फल की कामना न करो।
८५- वासना लेशमात्र भी रही तो भगवान् नहीं मिल सकते ।
८६- अहङ्कार की आड़ होने से ईश्वर नहीं देख पड़ते। अहंबुद्धि के जाते ही सब जंजाल दूर हो जाते हैं।
८७- मैं प्रभु का दास हूँ, मैं उसकी संतान हूँ, मैं उसका अंश हूँ। ये सतत अहङ्कार अच्छे हैं। ऐसे अभिमान से भगवान् मिलते हैं।
८८- जिसका (साधन) यहाँ ठीक है, उसका वहाँ भी ठीक है और जिसका यहाँ नहीं है, उसका वहाँ भी नहीं है।
८९- जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है।
९०- सफेद कपड़े में थोड़ी भी स्याही का दाग पड़ने से वह दाग बहुत स्पष्ट दीखता है, उसी प्रकार पवित्र मनुष्यों का थोड़ा दोष भी अधिक दिखलायी देता है।
९१- जिस घर में नित्य हरि-कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता।
९२- जब भगवान के आश्रित हो रहे हो, तो यह न हुआ, वह न हुआ आदि चिन्ताओं में मत पड़ो।
९३- विश्वासी भक्त आजीवन भगवान का दर्शन न मिलकर भी भगवान को नहीं छोड़ता।
९४- संसार कच्चा कुआँ है। इसके किनारे पर खूब सावधानी से खड़े होना चाहिये। तनिक असावधान होते ही कुएँ में गिर पड़ोगे, तब निकलना कठिन हो जाएगा।
९५- संसारी! तुम संसार का सब काम करो; किन्तु मन हर घड़ी संसार से विमुख रखो।
९६- कामिनी और कञ्चन ही माया है। इनके आकर्षण में पड़ने पर जीव की सब स्वाधीनता चली जाती है। इनके मोह के कारण ही जीव भाव-बन्धन में पड़ जाता है
९७- संसार में रहने से सुख-दुःख रहेगा ही। ईश्वर की बात अलग है और उसके चरण-कमल में मन लगाना और है। दुःख के हाथ से छुटकारा पाने का और कोई उपाय है, नहीं।
९८- साधु-संग करने से जीवन का मायारूपी नशा उतर जाता है।
९९- जिससे दस आदमी अच्छी प्रेरणा पाते हों तथा शुभ कार्य में लगते हों, तो समझना चाहिये कि उसके भीतर भगवान की विभूति अधिक है।
१००- जो सोचता है 'मैं जीव हूँ' वह जीव है; और जो सोचता है 'मैं शिव हूँ' वह शिव है।

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