जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 3


१०१- एक ईश्वर को पकड़े रहने से इहलौकिक, पारलौकिक अनेकों लाभ होते हैं, पर ईश्वर को त्यागते ही जीव का सब कुछ व्यर्थ हो जाता है।


१०२- व्याकुल होकर उसके लिये रोने से ही 'वह' मिलता है। लोग लड़के-बच्चे के लिये, रुपये-पैसे के लिये कितना रोते हैं, किंतु भगवान के लिये क्या कोई एक बूंद भी आँसू टपकाता है; उसके लिये रोओ, आँसू बहाओ तब उसको पाओगे।

१०३- ईश्वर के पाने का उपाय केवल विश्वास है। जिसे विश्वास हो गया, उसका काम बन गया।

१०४- मुँहमें राम बगल में छुरी मत रखो।

१०५- ईश्वर के नाम में ऐसा विश्वास चाहिये, कि मैंने उसका नाम लिया है, इससे अब मेरे पाप कहाँ? मेरे अब बन्धन कहाँ ?

१०६- एक ईश्वर ही सबका गुरु।

१०७- जब तक अज्ञान है, तभी तक चौरासी का चक्कर है।

१०८- दूसरे को सिखाने के लिये व्याकुल मत हो। जिससे तुम्हें ज्ञान-भक्ति प्राप्त हो, ईश्वर के चरण-कमल में मन लगे वही उपाय करो।

१०९- परनिन्दा और परचर्चा कभी न करो।

११०- विश्वास तारता है और अहंकार डुबाता है।

१११- पहले संसार करके पीछे भगवान की प्राप्ति की इच्छा करते हो। ऐसा न करके पहले भगवान को लेकर पीछे संसार करने की इच्छा क्यों नहीं करते? इससे बहुत सुख पाओगे।

११२- सात्त्विक साधक में बाहरी दिखावे का भाव तनिक भी नहीं रहता।

११३- जो मूर्ख वासना के रहते गेरुआ वस्त्र धारण करता है, उसका यह लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।

११४- वीर साधक इस संसार का बोझ सिर पर उठाकर भी भगवान की ओर निहारते रह सकते हैं।

११५- विषयासक्ति जितनी ही घटेगी ईश्वर के प्रति प्रेम भी उतना ही बढ़ता जाएगा।

११६- देह को चाहे जितना सुख-दुःख हो, भक्त उसका ख्याल नहीं करते। उनकी वृत्ति तो प्रभु के चरणों में अनन्य भाव से लगी रहती है।

११७- तत्त्वज्ञान होने से मनुष्य का पूर्व स्वभाव बदल जाता है।

११८- स्वामी के जीते रहते ही जो स्त्री ब्रह्मचर्य धारण करती है, वह नारी नहीं है, वह तो साक्षात् भगवती है।

११९- ईश्वर का प्रेम पाकर मनुष्य सारी बाहरी वस्तुओं को भूल जाता है। जगत का ख्याल उसको नहीं रहता, यहाँ तक कि सबसे प्रिय अपने शरीर को भी भूल जाता है। जब ऐसी अवस्था आवे तब समझना चाहिये कि प्रेम प्राप्त हुआ।

१२०- प्रपञ्च में मनुष्य का आत्म-पतन हो ही जाता है।

१२१- अहंकार करना व्यर्थ है। जीवन, यौवन कुछ भी यहाँ नहीं रहेगा। सब दो घड़ी का सपना है।

१२२- माँ से रोकर भक्ति माँगोगे, तो वह अवश्य देगी। इसमें जरा भी शक नहीं है।

१२३- ज्ञानोन्माद होने से कर्तव्य फिर कर्तव्य नहीं रह जाता। उस अवस्था में भगवान् उसका भार ले लेते हैं।

१२४- ईश्वर हैं, इस बात का जिसे ठीक बोध हो गया, वह फिर सांसारिक माया में नहीं पड़ता।

१२५- पुस्तकें हजार पढ़ो, मुख से हजार श्लोक कहो, पर व्याकुल होकर उसमें डुबकी नहीं लगाने से उसे पा न सकोगे।

१२६- पहले ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करो। गुरुवाक्य में विश्वास करके कुछ कर्म करो। गुरु न हों तो भगवान के पास व्याकुल प्राण से प्रार्थना करो। वह कैसे हैं, यह उन्हीं की कृपा से मालूम हो जाएगा।

१२७- सांसारिक पुरुष धन, मान, विषयादि असार वस्तुओं का संग्रह कर सुख की आशा करते हैं। परंतु वह सब किसी प्रकार भी सुख नहीं दे सकते।

१२८- भगवान् जीव को पाप में लिपटा रहने नहीं देता। वह दयाकर झट उसका उद्धार कर देता है।

१२९- भगवान् सबको देखते हैं; किंतु जब तक वे किसी को अपनी इच्छा से दिखायी नहीं देते। तब तक कोई उनको देख या पहचान नहीं सकता।

१३०-पूर्व-दिशा में जितना ही चलोगे पश्चिम-दिशा उतनी ही दूर होती जाएगी। इसी प्रकार धर्मपथ पर जितना ही अग्रसर होओगे, संसार उतनी ही दूर पीछे छूटता जाएगा।

१३१- कलियुग में प्रेमपूर्ण ईश्वरभक्ति ही सर्वश्रेष्ठ तथा सार वस्तु है।

१३२- प्रेम से हरिनाम गाओ। प्रेम से कीर्तन-रंग में मस्त होकर नाचो। इससे तरोगे, तरोगे। संसार से तर जाओगे।

१३३- गुरु ही माता, गुरु ही पिता और गुरु ही हमारे कुलदेव हैं। महान् संकट पड़ने पर आगे और पीछे वही हमारी रक्षा करनेवाले हैं। यह काया, वाक् और मन उन्हीं के चरणों में अर्पण हैं।

१३४- कीर्तन से स्वधर्म की वृद्धि होती है, कीर्तन से स्वधर्म की प्राप्ति होती है, कीर्तन के सामने मुक्ति भी लज्जित होकर भाग जाती है।

१३५- कलियुग में नाम-स्मरण और हरि-कीर्तन से जीवमात्र का उद्धार होता है।

१३६- सब दानों में श्रेष्ठ अन्नदान है और उससे भी श्रेष्ठ ज्ञानदान है।

१३७- बैठकर राम-नाम के ध्यान का अनुष्ठान करें, उसी में मन को दृढ़ कर एकनिष्ठ भाव से मग्न हों। इससे बढ़कर कोई साधन है नहीं।

१३८- परद्रव्य और परदारा को छूत मानें। इससे बढ़कर निर्मल कोई तप है नहीं।

१३९- इस कलियुग में राम-नाम के सिवा कोई आधार है नहीं।

१४०- मन में भगवान का रूप ऐसे आकर बैठ जाए, कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति कोई भी अवस्था याद न आवे।

१४१- इन कानों से तेरा नाम और गुण सुनूँगा । इन पैरौंसे तीर्थोक ही रास्ते चलूँगा। यह नश्वर देह किस काम आवेगी?

१४२- भगवन् ! मुझे ऐसी प्रेमभक्ति दे कि मुँह से तेरा ही नाम अखण्डरूप से लेता रहूँ।

१४३- अपनी स्तुति और दूसरों की निन्दा, हे गोविन्द ! मैं कभी न करूँ। सब प्राणियों में हे राम ! मैं तुम्हें ही देखू और तेरे प्रसाद से ही सन्तुष्ट रहूँ।

१४४- भगवान का आवाहन किया, पर इस आवाहन में विसर्जन का कुछ काम नहीं। जब चित्त उसी में लीन होता है, तो गाते भी नहीं बनता।

१४५- जो सब देवों का पिता है, उसके चरणों की शरण लेते ही सारी माया छूट जाती है, सब द्वन्द्व नष्ट हो जाते हैं।

१४६- वह ज्ञानदीप जलाया जिसमें चिन्ता का कोई काजल नहीं और आनन्द भरित प्रेम से देवाधिदेव श्रीहरि की आरती की। सब भेद और विकार उड़ गये।

१४७- भीतर-बाहर, चर-अचर में सर्वत्र श्रीहरि ही विराज रहे हैं। उन्होंने मेरा मन हर लिया, मेरा-तेरा भाव निकाल दिया।

१४८- योग, तप, कर्म और ज्ञान-ये सब भगवान के लिये हैं। भगवान के बिना इनका कुछ भी मूल्य नहीं है।

१४९- भगवान के चरणों में संसार को समर्पित करके भक्त निश्चिन्त रहते हैं और तब वह सारा प्रपञ्च भगवान का ही हो जाता है।

१५०- गङ्गा सागर से मिलने जाती है; परंतु जाती हुई जगत का पाप-ताप निवारण करती है। उसी प्रकार आत्म-स्वरूप को प्राप्त जो संत हैं, वे अपने सहज कर्मों से संसार में बँधे बन्दियों को छुड़ाते हैं।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 3 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 3 Reviewed by Vishant Gandhi on October 28, 2020 Rating: 5

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