१५१- संतों की जीवन चर्या संसार के लिये आइने के समान होती है।
१५२- सब भूतों में समदृष्टि से केवल एक हरि को ही देखना चाहिये।
१५३- जो निर्द्वन्द्व होकर निन्दा सह लेता है, उसकी माता धन्य है।
१५४- भगवान् ही सब साधनों के साध्य हैं और सब बराबर प्राणियों में भगवान को देखकर सर्वत्र अखण्ड-भगव बुद्धि को स्थिर रखना और सब के कल्याण का उद्योग करना अर्थात् लोकसंग्रह और
लोकोपकार में तन-मन-प्राण अर्पण करना ही सच्ची हरिभक्ति है।
१५५- समदर्शी, निरपेक्ष और निरहंकार होकर सब भूतों में भगवान् भरे हैं। ऐसा जानकर जो लोकोपकार होता है, वही उत्तम हरि-भजन है।
१५६- सब प्राणियों में भगवान को विद्यमान जानकर उनके हितार्थ अहंभावरहित होकर कायेन-मनसा-वाचा उद्योग करना ही भगवान की
तपस्या है।
१५७- जो स्थूल है, वही सूक्ष्म है। दृश्य है, वही अदृश्य है। व्यक्त है, वही अव्यक्त है। सगुण है, वही निर्गुण है। अंदर है, वही बाहर है।
१५८- भगवान् सर्वत्र हैं, पर जो भक्त नहीं हैं, उन्हें नहीं दिखायी देते। जल में, थल में, पत्थर में कहाँ नहीं हैं, जिधर देखो उधर ही भगवान् हैं, पर अंभक्तों को केवल शून्य दिखायी देता है।
१५९- एकत्व के साथ सृष्टि को देखने से दृष्टि में भगवान् ही भर जाते हैं।
१६०- धन्य हैं, सद्गुरु जिन्होंने गोविन्द दिखा दिया।
१६१- संतों के घर-द्वार, अंदर-बाहर, कर्म में, वाणी में और मन में भगवद्भक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं मिल सकता।
१६२- संतों के कर्म, ज्ञान और भक्ति हरिमय होते हैं। शान्ति, क्षमा, दया आदि दैवी गुण संतों के आँगन में लोटा करते हैं।
१६३- संत-सेवा मुक्ति का द्वार है।
१६४- भगवान् स्वयं संतों के घर में घुसकर अपना दखल जमाते हैं।
१६५- सद्गुरु के सामने वेद मौन हो गये, शास्त्र दिवाने हो गये और वाक् भी बन्द हो गयी। सद्गुरु की कृपादृष्टि जिस पर पड़ती है, उसकी दृष्टि में सारी सृष्टि श्रीहरिमय हो जाती है।
१६६- धन्य हैं, श्रीगुरुदेव जिन्होंने अखण्ड नाम-स्मरण करा दिया।
१६७- सद्गुरुचरणों का लाभ जिसे हो गया, वह प्रपञ्च से मुक्त हो गया।
१६८- सारा प्रपञ्च छोड़कर भगवान के चरणों का ही सदा ध्यान करना चाहिये।
१६९- सद्गुरु का सहारा जिसे मिल गया, कलिकाल उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
१७०-भक्ति, वैराग्य और ज्ञान का स्वयं आचरण करके दूसरों को इसी आचरण में लगाने का नाम ही लोकसंग्रह है।
१७१- सिद्धियों के मनोरथ केवल मनोरंजन हैं, उनमें परमार्थ नहीं, प्रायः बने हुए लोग ही सिद्धियों का बाजार लगाते हैं और गरीबों को ठगते हैं।
१७२- कलिकाल बड़ा भीषण है, इसमें केवल प्रभु के नाम का ही सहारा है।
१७३- इन्द्र और चींटी दोनों देहतः समान ही हैं। देहमात्र ही नश्वर है। सबके शरीर नाशवान् हैं। शरीर का पर्दा हटाकर देखो तो सर्वत्र भगवान् ही हैं। भगवान के सिवा और क्या है ? अपनी दृष्टि चिन्मय हो, तो सर्वत्र श्रीहरि ही हैं।
१७४- श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे हैं। वह सम्पूर्ण विश्व के अंदर और बाहर व्याप्त हैं। जहाँ हो वहीं देखो, वहीं तुम्हें वह दर्शन देंगे।
१७५- दृश्य, दर्शन, द्रष्टा-तीनों को पारकर देखो तो बस श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं।
१७६-भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। उनका ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य सभी अनन्त है, अपार है। जिसे उसका एक कण भी मिल गया वह धन्य-धन्य हो गया।
१७७- सभी वैभववाले, बड़ी आयुवाले, बड़ी महिमावाले, आखिर चले गये मृत्युपथ में ही। सब चले गये; परंतु एक ही रहे जो स्वरूपाकार हुए-आत्मज्ञानी हुए।
१७८- जिस वाणी में हरिकथा-प्रेम है, वही वाणी सरस है।
१७९- प्रेम के बिना श्रुति, स्मृति, ज्ञान, ध्यान, पूजन, श्रवण, कीर्तन सब व्यर्थ है।
१८०- संत का जीवन और मरण हरिमय होता है, हरि के सिवा और है, ही क्या कि हो। फिर मृत्यु के समय भी हरिस्मरण के सिवा और क्या हो सकता है ?
१८१- जो चीनी की मिठास है, वही चीनी है। वैसे ही चिदात्मा जो है, वही यह लोक है। संसार में हरि से भिन्न और कुछ भी नहीं है।
१८२- जो कुछ सुन्दर दिखायी देता है, वह श्रीकृष्ण के ही अंश से है। उससे आँखें ऐसी दीवानी हो गयीं कि भगवान के मयूरपिच्छ में जा लगीं।
१८३- जिसने एक बार श्रीकृष्ण को देखा, उसकी आँखें फिर उससे नहीं फिरतीं। अधिकाधिक उसी रूपको आलिङ्गन करती हैं और उसी में लीन हो जाती हैं।
१८४- कुल-कर्म को मिटाना हो, अपने साथ सबको मिट्टी में मिलाना हो, जीव तक का अन्त करना हो, तो कोई कृष्ण को वरण करे।
१८५- उठो! श्रीकृष्ण के चरणों का वन्दन करो। लज्जा और अभिमान छोड़ दो, मन को निर्विकल्प कर लो और वृत्ति को सावधान करके हरिचरणों का वन्दन करो।
१८६- श्रीचरणों का आलिङ्गन होते ही अहं-सोऽहं की गाँठे खुल गयीं। सारा संसार आनन्दमय हो गया। सेव्य-सेवक भावों का कोई चिह्न नहीं रह गया। देवी और देव एक हो गये।
१८७- सच्चा विरक्त उसी को कहना चाहिये, जो मान के स्थानसे दूर रहता है। वह सत्सङ्ग में स्थिर रहता है। अपना कोई नया सम्प्रदाय नहीं चलाता, नया अखाड़ा नहीं खोलता, अपनी गद्दी नहीं कायम करता। जीविका के लिये दीन होकर किसी की खुशामद नहीं करता। वह लौकिक नहीं होता, उसे वस्त्रालंकार की इच्छा नहीं होती, परान्न में रुचि नहीं होती, स्त्रियों को देखना उसे अच्छा नहीं लगता।
१८८- अपनी स्त्री के सिवा अन्य स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखे। अपने स्त्री से भी केवल समुचित ही सम्बन्ध रखे और चित्त को कभी आसक्त न होने दे।
१८९- प्रमदासङ्ग से बराबर बचना चाहिये। जो निरभिमान होकर निःसङ्ग हो गया हो, वही अखण्ड एकान्त-सेवन कर सकता है।
१९०- स्त्री, धन और प्रतिष्ठा चिरंजीव-पद-प्राप्ति के साधन में तीन महान् विघ्न हैं।
१९१- सच्चा अनुताप और शुद्ध सात्त्विक वैराग्य यदि न हो, तो श्रीकृष्ण पद प्राप्त करने की आशा करना केवल अज्ञान है।
१९२- सुनो, मेरा पागल प्रेम ऐसा है, कि सुन्दर श्याम श्रीराम ही मेरे अद्वितीय ब्रह्म हैं और कुछ मुझे नहीं मालूम। राम के बिना जो ब्रह्मज्ञान है, हनुमान जी गरजकर कहते हैं कि उसकी हमें कोई जरूरत नहीं। हमारा ब्रह्म तो राम है।
१९३- जो मोल लेकर गंदी मदिरा पान करता है, वही उसके नशे में चूर होकर नाचता-गाता है, तब जिसने भगवत्व प्रेमकी दिव्य मदिरा का सेवन किया हो, वह कैसे चुपचाप बैठ सकता है ?
१९४-भगवान के चरणों में अपरोक्ष स्थिति हो जांए, तो वहाँ क्षणार्ध में होनेवाली प्राप्ति के सामने त्रिभुवन-विभव-सम्पत्ति भी भक्त के लिये तृण के समान है।
१९५- याचना किये बिना यदृच्छा से जो कुछ मिले उसे साधक मङ्गलमय प्रभु का महाप्रसाद समझकर स्वानन्द से भोग लगावे।
१९६- दारा, सुत, गृह, प्राण सब भगवान को अर्पण कर देना चाहिये। यह पूर्ण भागवत धर्म है। मुख्यतः इसी का नाम भजन है।
१९७- साधु-संतों से मैत्री करो, सबसे पुराना परिचय (प्रेम) रखो, सबके श्रेष्ठ सखा बनो, सब के साथ समान रहो।
१९८- भगवान की आचारसहित भक्ति सब योगों का योगगह्वर, वेदान्त का निज भण्डार, सकल सिद्धियों का परम सार है।
१९९- गृहस्थाश्रम में रहकर भी जिसका चित्त प्रभु के रंग में रंग गया और इस कारण जिसकी गृहासक्ति छूट गयी, उसे गृहस्थाश्रम में भी भगवत्व प्राप्ति होती है और निज बोध में ही सारी सुख-सम्पत्ति मिल जाती है।
२००- जीव और परमात्मा दोनों एक हैं। इस बात को जान लेना ही ज्ञान है। वह ऐक्य लाभकर परमात्म सुख भोगना सम्यक् विज्ञान है।

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