२०१- मैं ही देव हूँ, मैं ही भक्त हूँ, पूजा की सामग्री भी मैं ही हूँ, मैं ही अपनी पूजा करता हूँ। यह अभेद-उपासना का एक रूप है।
२०२- सहज अनुकम्पा से प्राणियों के साथ अन्न, वस्त्र, दान, मान इत्यादि से प्रिय आचरण करना चाहिये। यही सब का स्वधर्म है।
२०३- पिता स्वयमेव नारायण हैं। माता प्रत्यक्ष लक्ष्मी हैं। ऐसे भाव से जो भजन करता है, वही सुपुत्र होता है।
२०४- बहते पानी पर चाहे जितनी लकीरें खींचो एक भी लकीर न खिंचेगी, वैसे ही सत्त्व-शुद्धि के बिना आत्मज्ञान की एक भी किरण प्रकट न होगी।
२०५- धन्य है नरदेह का मिलना, धन्य है साधुओं का सत्सङ्ग, धन्य हैं वे भक्त जो भगवद्भक्ति में रँग गये।
२०६- वैष्णवों को जो एक जाति मानता है, शालग्राम को जो एक पाषाण समझता है, सद्गुरु को जो एक मनुष्य मानता है, उसने कुछ न समझा।
२०७- जो निज सत्ता छोड़कर पराधीनता में जा फँसा, उसे स्वप्नन में भी सुख की वार्ता नहीं मिलती।
२०८- जो धन के लोभ में फँसा हुआ है, उसे कल्पान्त में भी मुक्ति नहीं मिल सकती। जो सर्वदा स्त्री-कामी है, उसे परमार्थ या आत्मबोध नहीं मिल सकता।
२०९- जब सूर्यनारायण प्राची दिशा में आते हैं, तब तारे अस्त हो जाते हैं। वैसे ही भक्ति के प्रबोधकाल में कामादिकों की होली हो जाती है।
२१०- सत्य के समान कोई तप नहीं है, सत्य के समान कोई जप नहीं है। सत्य से सद्रूप प्राप्त होता है। सत्य से साधक निष्पाप होते हैं।
२११- वर्गों में चाहे कोई सबसे श्रेष्ठ क्यों न हो। वह यदि हरिचरणों से विमुख है, तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जो प्रेम से भगवद्भजन करता है।
२१२- अन्तःशुद्धि का मुख्य साधन हरि-कीर्तन है। नाम के समान और कोई साधन है नहीं।
२१३- भक्त जहाँ रहता है, वहाँ सभी दिशाएँ सुखमय हो जाती हैं। वह जहाँ खड़ा होता है, वहाँ सुखसे महासुख आकर रहता है।
२१४- अभिमान का सर्वथा त्याग ही त्याग का मुख्य लक्षण है।
२१५- सम्पूर्ण अभिमान को त्यागकर प्रभु की शरण में जाने से तुम जन्म-मरणादि के द्वन्द्वों से तर जाओगे।
२१६- जो हृदयस्थ है, उसकी शरण लो।
२१७- प्रभु की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है, अभिमान ।
२१८- प्रभु की शरण में जाने से प्रभु का सारा बल प्राप्त हो जाता है, सारा भवभय भाग जाता है। कलिकाल काँपने लगता है।
२१९- समर्पण का सरल उपाय है, नामस्मरण । नामस्मरण से भस्म होते हैं।
२२०- सकाम नामस्मरण करने से वह नाम जो इच्छा हो वह पूरी कर देता है। निष्काम नामस्मरण करने से वह नाम पाप को भस्म कर देता है।
२२१- मन के श्रीकृष्णार्पण होने से भक्ति उल्लसित होती है।
२२२- अष्ट महासिद्धियाँ भक्त के चरणों में लोटा करती हैं, वह उनकी ओर देखता तक नहीं।
२२३- जिस भक्त को प्रभु की भक्ति प्राप्त हो जाती है, उसके सभी व्यापार भगवदाकार हो जाते हैं।
२२४-भक्त जिस ओर रहता है, वह दिशा श्रीकृष्ण बन जाती है। वह जब भोजन करने बैठता है, तब उसके लिये हरि ही प्रकट हो जाते हैं। उसे जल पिलाने के लिये प्रभु ही जल बन जाते हैं।
२२५- जब भक्त पैदल चलता है, तो शान्ति पद-पद पर उसके लिये मृदु पदासन बिछाती और उसकी आरती उतारती है
२२६- शम-दम आज्ञाकारी सेवक होकर भक्त के द्वार पर हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। ऋद्धि-सिद्धि दासी बनकर घर में काम करती हैं। विवेक टहलुआ सदा हाजिर ही रहता है।
२२७-भक्त के प्रत्येक शब्द से प्रभु की ही वार्ता उठती है और श्रोता सुनकर तल्लीन हो जाते हैं ।
२२८- चारों मुक्ति मिलकर भक्त के घर पानी भरती हैं और श्री के साथ श्री हरि भी उसकी सेवा में रहते हैं, औरों की बात ही क्या है?
२२९- भक्त भगवान की आत्मा है, वह भगवान का जीवन है, प्राण है।
२३०- प्रभु पूर्णतः भक्त के अंदर हैं और भक्त पूर्णतः भगवान के अंदर है।
२३१- साधनों में मुख्य साधन श्रीहरि की भक्ति ही है। भक्ति में भी नामकीर्तन विशेष है। नाम से चित्त-शुद्धि होती है। साधकों को स्वरूप-स्थिति प्राप्त होती है।
२३२- नाम-जैसा और कोई साधन नहीं है। नाम से भव-बन्धन कट जाते हैं।
२३३ -मन ने सबको बाँध रखा है। मन को बाँधना आसान नहीं। मन ने देवताओं को पस्त कर डाला। वह इन्द्रियों को क्या समझता है।
२३४- मन की मार बड़ी जबरदस्त है। मन के सामने कौन ठहर सकता है।
२३५- हीरे से हीरा काटा जाता है। वैसे ही मन से मन पकड़ा जाता है; पर यह भी तब होता है जब पूर्ण श्रीहरि कृपा होती है।
२३६- मन ही मन का बोधक, मन ही मन का साधक, मन ही मन का बाधक और मन ही मनका घातक है।
२३७- अष्टाङ्गयोग, वेदाध्ययन, सत्यवचन तथा अन्य जो-जो साधन हैं, उन साधनों से जो कुछ मिलता है, वह सब भगवद्भजन से प्राप्त होता है।
२३८- निरपेक्ष ही धीर होता है। धैर्य उसके चरण छूता है। जो अधीर है, उससे निरपेक्षता नहीं होती।
२३९- कोटि-कोटि जन्मों के अनुभव के बाद निरपेक्षता आती है। निरपेक्षता से बढ़कर और कोई साधन है नहीं।
२४०- एकान्त भक्ति का लक्षण यह है, कि भगवान् और भक्त का एकान्त होता है। भक्त भगवान में मिल जाता है और भगवान् भक्त में मिल जाते हैं।
२४१-जिसकी भेदबुद्धि नहीं रही, जिसे समत्व का बोध हो गया, उसी को सर्वत्र भगवत्स्वरूप के अनुभव का परमानन्द प्राप्त होता है।
२४२- जो सदा समभाव में एकाग्र रहते हैं, प्रभु के भजन में ही तत्पर रहते हैं, वे प्रकृति के पार पहुँचकर प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होते हैं।
२४३- जिसके हृदय में विषय से विरक्ति हो, अभेदभाव से श्रीहरिचरणों में भक्ति हो, भजन में अनन्य प्रीति हो उसके स्वयं श्रीहरि ही आज्ञाकारक हैं।
२४४- जो शिश्नोदर भोग में ही आसक्त हैं, जो अधर्म रत हैं, ऐसे विषयासक्तों को असाधु समझो। उसका संग मत करो। वाचा, मनसा उसका त्याग कर दो।
२४५- जो बड़ा भारी विरक्त बनता है, पर हृदय में अधर्मकामरत रहता है, कामवश द्वेष करता है, वह भी निश्चित दुःसङ्ग है।
२४६- जो बड़ा सात्त्विक बनता है, पर हृदय में संतों के दोष देखता है वह अतिदुष्ट दुःसङ्ग है।
२४७- पर सबसे मुख्य दुःसङ्ग अपना ही काम है, अपनी ही सकामता है। इसे समूल त्याग देने से ही दुःसङ्गता त्यागी जाती है। उस काम-कल्पना को जो नर त्यागता है, उसके लिये संसार सुख-रूप होता है।
२४८- उस काम-कल्पना को त्यागने का मुख्य साधन केवल सत्सङ्ग है। संतों के श्रीचरणों को वन्दन करने से काम मारा जाता है।
२४९- सत्सङ्ग के बिना जो साधन है, वह साधकों को बाँधनेवाला कठिन बन्धन है। सत्सङ्ग के बिना जो त्याग है, वह केवल पाखण्ड है।
२५०- संतों की मामूली बातें महान् उपदेश होती हैं। चित्त में पड़ी हुई गाँठें उनके शब्दमात्र से छिद जाती हैं। इसलिये बुद्धिमानों को चाहिये कि सत्सङ्ग करें। सत्सङ्ग से साधकों के भवपाश कट जाते हैं।

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