जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 6

२५१- हृदयमें  प्रभु का नित्य ध्यान हो, मुख से उनका नाम कीर्तन हो, कानों में सदा उनकी ही कथा गूंजती हो, प्रेमानन्द से उनकी ही पूजा हो, नेत्रों में हरि की मूर्ति विराज रही हो, चरणों से उनके ही स्थान की यात्रा हो, रसना में प्रभु के तीर्थ का रस हो, भोजन हो तो वह प्रभु का प्रसाद ही हो। साष्टाङ्ग नमन हो उनके ही प्रति, आलिङ्गन हो आह्लाद से उनके ही भक्तों का और एक क्या आधा पल भी उनकी सेवा के बिना व्यर्थ न जाय। सब धर्मो में यही श्रेष्ठ धर्म है।


२५२- बछड़े पर गौका जो भाव होता है, उसी भाव से हरि मुझे सँभाले हुए।

२५३- बच्चे अनेक प्रकार की बोलियों से माता को पुकारते हैं, पर हैं। उन बोलियों का याथातथ्य ज्ञान माता को ही होता है।

२५४- संतों ने मर्म की बात खोलकर बता दी है- हाथ में झाँझ-मंजीरा ले लो और नाचो। समाधि के सुख को इस पर न्यौछावर कर दो। ऐसा ब्रह्मरस इस नाम-संकीर्तन में भरा हुआ है।

२५५- यह समझ लो कि चारों मुक्तियाँ हरिदासों की दासियाँ हैं।

२५६- सदा-सर्वदा नाम-संकीर्तन और हरिकथा-गान होने से चित्त में अखण्ड आनन्द बना रहता है। सम्पूर्ण सुख और शृङ्गार इसी में मैंने पा लिया और अब आनन्द में झूम रहा हूँ। अब कहीं कोई कमी ही नहीं रही। इसी देह में विदेह का आनन्द ले रहा हूँ।

२५७- नाम का अखण्ड प्रेम-प्रवाह चला है। राम-कृष्ण, नारायण-नाम अखण्ड जीवन है, कहीं से भी खण्डित होने वाला नहीं।

२५८- वह कुल पवित्र है, वह देश पावन है, जहाँ हरि के दास जन्म लेते हैं।

२५९- बाल-बच्चों के लिये जमीन-जायदाद रख  जाने वाले माँ-बाप क्या कम हैं? दुर्लभ हैं, वे ही जो अपनी संतति के लिये भगवद्भक्ति की सम्पत्ति छोड़ जाते हैं।

२६०- भगवान की यह पहचान है कि जिसके घर आते हैं, उसको घोर विपत्ति में भी सुख-सौभाग्य दिखायी देता है।

२६१- माता से बच्चे को यह नहीं कहना पड़ता कि तुम मुझे सँभालो। माता तो स्वभाव से ही उसे अपनी छाती से लगाये रहती है। इसलिये मैं भी सोच-विचार क्यों करूँ? जिसके सिर जो भार है, वही सँभाले।

२६२- बिना माँगे ही माँ बच्चे को खिलाती है और बच्चा जितना भी खांए, खिलाने से माता कभी नहीं अघाती। खेल खेलने में बच्चा भूला रहे, तो भी माता उसे नहीं भुलाती, बरबस पकड़कर उसे छाती से चिपटा लेती और स्तनपान कराती है। बच्चे को कोई पीड़ा हो तो माता भाड़ की लाई के समान विकल हो उठती है

२६३- प्रभु का स्नेह माता के स्नेह से भी बढ़कर है; फिर सोच-विचार क्यों करूँ? जिसके सिर जो भार है, वही जाने।

२६४- बच्चे को उठाकर छाती से लगा लेना ही माता का सबसे बड़ा सुख है। माता उसके हाथ में गुड़िया देती और उसके कौतुक देख अपने जी को ठंढा करती है। उसे आभूषण पहनाती और उसकी शोभा देख परम प्रसन्न होती है। उसे अपनी गोद में उठा लेती और टकट की लगाये उसका मुँह निहारती है। माता बच्चे का रोना सह नहीं सकती।

२६५- मातृस्तन में मुँह लगाते ही माता के दूध भर आता है। माँ-बच्चे दोनों लाड़ लड़ाते हुए एक दूसरे की इच्छा पूरी करते हैं, पर सारा भार है, माता के सिर ।

२६६- माता के चित्त में बालक ही भरा रहता है। उसे अपनी देह की सुध नहीं रहती। बच्चे को जहाँ उसने उठा लिया वहीं सारी थकावट उसकी दूर हो जाती है।

२६७- बच्चे की अटपटी बातें माता को अच्छी लगती हैं। चट उसे वह अपनी छाती से लगा लेती और मुँह चूम लेती है। इसी प्रकार भगवान का जो प्रेमी है, उसका सभी कुछ भगवान को प्यारा लगता है और भगवान् उसकी सब मनःकामनाएँ पूर्ण करते हैं।

२६८- गाय जंगल में चरने जाती है, पर चित्त उसका गोठ में बँधे बछड़े पर ही रहता है। मैया मेरी! मुझे भी ऐसा ही बना ले, अपने चरणों में
ठाँव देकर रख ले।

२६९- संसार, सच कहिये तो दुःखों का घर है। जन्म-मरण के महादुःखों के बीच में घूमने वाले इस संसार में जो भी आया वह दुःखों का मेहमान हुआ।

२७०- संसार दुःखरूप है, यही तो शास्त्र का सिद्धान्त है और यही जीवमात्र का अन्तिम अनुभव है।

२७१- भगवत्संकल्प के अनुसार ही सृष्टि के सब व्यापार हुआ करते हैं। सामान्य जीव सांसारिक दुःखों की चक्की में पीस दिये जाते हैं; पर वे ही दुःख भाग्यवान् पुरुषों के उद्धार का कारण बनते हैं।

२७२- सच्चा प्रेम कभी मरता नहीं, काल भी उसे मार नहीं सकता।

२७३- प्रेम तो निष्काम-निर्विषय ही होता है और उसका एकमात्र भाजन परमात्मा है। ऐसा प्रेम भक्तों के ही भाग्य में होता है।

२७४- भक्तों में सच्चाई होती है। वैराग्य के अञ्जन से जब आँखें खुल जाती हैं, तब नश्वर संसार के भेद-भावों में बँठे हुए प्रेम को एक जगह बटोरकर वे एक परमात्मा को ही अर्पण कर देते हैं। फिर प्रेमामृत की धारा भगवान के सम्मुख ही प्रवाहित होने लगती है।

२७५- सब के परम सुहृद् प्रभु जो कुछ करते हैं, उसी में हमारा परम हित है।

२७६- भगवान् भक्त को गृहप्रपञ्च करने ही नहीं देते। सब झंझटों से अलग रखते हैं।

२७७- बहुत मारा-मारा फिरा। लुट गया। तड़पते ही दिन बीत रहे हैं। हे दीनानाथ ! संसार में अपना विरद रखो।

२७८- निःसार है, यह संसार ।

२७९- संसार कालग्रस्त, नश्वर और दुःखरूप है। इसका सारा घटाटोप व्यर्थ है। भगवान् मिलें तो ही जन्म सफल है।

२८०- यह सब नाशवान् है, गोपाल को स्मरण कर, वही हित है।

२८१- सुख देखिये तो राई-बराबर है और दुःख पर्वत के बराबर।

२८२- यह संसार दुःख से बँधा है, इसमें सुख का विचार तो कहीं भी नहीं है।

२८३- देह नाशवान् है। देह मृत्यु की धौंकनी है। संसार केवल दुःख रूप है। सब भाई-बन्धु सुख के साथी हैं।

२८४- संसार मिथ्या है। यह ज्ञात हुआ और आँखें खुलीं। दुःख से आँखें खुलती हैं, तब दुःख ही अनुग्रह जान पड़ता है।

२८५- खटमल भरी खाटपर मीठी नींद का लगना जैसे असम्भव है, वैसे ही अनित्य संसार के भरोसे सुख मिलना भी असम्भव है।

२८६- वैराग्य परमार्थ की नींव है।

२८७- विरक्ति के बिना ज्ञान नहीं ठहर सकता । देहसहित सम्पूर्ण दृश्यमान संसार के नश्वरत्व की मुद्रा जब तक चित्तपर अङ्कित नहीं हो जाती,
तबतक वहाँ ज्ञान नहीं ठहर सकता।

२८८- यह समस्त संसार अनित्य है, इस अनित्यताको जहाँ जान लिया तहाँ वैराग्य हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है। ऐसा दृढ़तर वैराग्य
उत्पन्न होना ही तो भगवान की दया है।

२८९- वैराग्य खेल नहीं, भगवान की दया हो तो ही उसका लाभ हो ।

२९०- भगवान् जिसपर अनुग्रह करना चाहते हैं, उसे वे पहले वैराग्य-दान करते हैं।

२९१- चित्त से जबतक प्रपञ्च बिल्कुल उतर नहीं जाता, तबतक परमार्थ नहीं सूझता, नहीं भाता, नहीं ठहरता। मनोभूमि जब वैराग्य से शुद्ध हो जाती है, तब उसमें बोया हुआ ज्ञानबीज अङ्कुरित होता है।

२९२- सतत सत्सङ्ग, सत्-शास्त्र का अध्ययन, गुरु-कृपा और आत्माराम की भेंट-यही वह क्रम है जिससे जीव संसार के कोलाहल से मुक्त होता है।

२९३- प्रारब्धवश जिस जाति में हम पैदा हुए उसी जाति में रहकर तथा उसी जाति के कर्म करते हुए प्रेम से नारायण का भजन करें और तर जायँ-इतना ही अपना कर्तव्य है।

२९४- भगवान का भजन ही जीवन का सुफल है।

२९५- सुगम मार्ग से चलो और सुख से राम-कृष्ण-हरिनाम लेते चलो। वैकुण्ठका यही अच्छा और समीपका रास्ता है।

२९६- जिस सङ्ग से भगवत्प्रेम उदय होता है, वही सङ्ग सङ्ग है, बाकी तो नरकनिवास है।

२९७- संतों के द्वार पर श्वान होकर पड़े रहना भी बड़ा भाग्य है, क्योंकि; वहाँ प्रसाद मिलता है और भगवान का गुणगान सुनने में आता है।

२९८- कीर्तन का अधिकार सबको है, इसमें वर्ण या आश्रम का भेद-भाव नहीं।

२९९- कीर्तन से शरीर हरिरूप हो जाता है। प्रेमछन्द से नाचो-डोलो। इससे देहभाव मिट जाएगा।

३००- हरिकीर्तन में भगवान्, भक्त और नाम का त्रिवेणी-संगम होता है।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 6 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 6 Reviewed by Vishant Gandhi on October 28, 2020 Rating: 5

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