जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 7


३०१- प्रेमी भक्त प्रेम से जहाँ हरिगुण-गान करते हैं, भगवान् तो वहाँ रहते ही हैं।


३०२- कीर्तन से संसार का दुःख दूर होता है। कीर्तन संसार के चारों ओर आनन्द की प्राचीर खड़ी कर देता है और सारा संसार महासुख से भर जाता है। कीर्तन से विश्व धवलित होता और वैकुण्ठ पृथ्वी पर आता है।

३०३- भगवान के वचन हैं- मेरे भक्त जहाँ प्रेम से मेरा नाम संकीर्तन करते हैं, वहाँ तो मैं रहता ही हूँ। मैं और कहीं न मिलूँ, तो मुझे वहीं ढूँढ़ो।

३०४- तेरा कीर्तन छोड़ मैं और कोई काम न करूंगा। लज्जा छोड़कर तेरे रंग में नाचूँगा।

३०५- कीर्तन का विक्रय महान् मूर्खता है।

३०६- वाणी ऐसी निकले कि हरि की मूर्ति और हरि का प्रेम चित्त में बैठ जाय। वैराग्य के साधन बतावे, भक्ति और प्रेम के सिवा अन्य व्यर्थ की बातें कथा में न कहे।

३०७- कीर्तन करते हुए हृदय खोलकर कीर्तन करे, कुछ छिपाकर-चुराकर न रखे। कीर्तन करने खड़े होकर जो कोई अपनी देह चुरावेगा, उसके बराबर मूर्ख और कौन हो सकता है?

३०८- स्वाँग से हृदयस्थ नारायण नहीं ठगे जाते। निर्मल भाव ही साधन-वन का बसन्त है।

३०९- भगवान् भावुकों के हाथ पर दिखायी देते हैं, पर जो अपने को बुद्धिमान् मानते हैं, वह मर जाते हैं, तो भी भगवान का पता नहीं पाते।

३१०- ज्ञान के नेत्र खुलने से ग्रन्थ समझ में आता है, उसका रहस्य खुलता है, पर भाव के बिना ज्ञान अपना नहीं होता।

३११- भाव के नेत्र जहाँ खुले वहीं सारा विश्व कुछ निराला ही दिखायी देने लगता है।

३१२- भगवान से मिलन होने के लिये भाव आवश्यक है।

३१३- चित्त यदि भगवच्चिन्तन में रँग जाय, तो वह चित्त ही चैतन्य हो जाता है, पर चित्त शुद्ध भाव से रँग जाय तब।

३१४- जैसा भाव वैसा फल। भगवान के सामने और कोई बल नहीं चलता।

३१५- पत्थर की ही सीढ़ी और पत्थर की ही देव-प्रतिमा, परंतु एक पर हम पैर रखते हैं और दूसरे की पूजा करते हैं। भाव ही भगवान् हैं।

३१६- गङ्गा-जल जल नहीं है, बड़-पीपल वृक्ष नहीं हैं, तुलसी और रुद्राक्ष माला नहीं है, ये सब श्रेष्ठ शरीर हैं।

३१७- भाव न हो तो साधन का कोई विशेष मूल्य नहीं।

३१८- तीर्थ को जो जल समझता है, प्रतिमा में जो पत्थर देखता है, संतों को जो मनुष्य समझता है, उसके समान मूर्ख कौन है।

३१९- भूतमात्र में जब हरि के दर्शन होने लगते हैं, तभी निष्काम और सच्ची भूत सेवा बन पड़ती है।

३२०- यदि तुम भगवान को चाहते हो, तो भाव से उनके गीत गाओ। दूसरे के गुण-दोष न सुनो, मन में भी न लाओ। संत के चरणों की सेवा करो। सबके साथ विनम्र रहो और थोड़ा-बहुत जो कुछ बन पड़े उपकार करो। यह सुलभ उपाय ।

३२१- पर-उपकार से उन्हीं हरि की ही सेवा बनती है। भूतों का उपकार ही भूतात्मा का पूजन-अर्चन है।

३२२- हृदय का भाव भगवान् जानते हैं, उन्हें जनाना नहीं पड़ता।

३२३- छोटे-बड़े सबका शरीर नारायण का ही शरीर है।

३२४- चित्त में भगवान को बैठाया कि पर-द्रव्य और पर-नारी विषवत् हो गये।

३२५- निर्लज्ज नाम-स्मरण ही मेरा सारा धन है और यही मेरा सम्पूर्ण साधन है।

३२६- मेरा चित्त, वित्त, पुण्य, पुरुषार्थ सब कुछ श्रीहरि हैं।

३२७- मेरे माँ-बाप, भाई-बहन सब हरि ही हैं। हरि को छोड़ कुल-गोत्रसे मुझे क्या काम? हरि ही मेरे सर्वस्व हैं। उनके सिवा ब्रह्माण्ड में मेरा कोई नहीं।

३२८- संसार में भटकते-भटकते मैं थक गया। 'नाम' से काया शीतल हुई।

३२९- राम, कृष्ण, हरि का कीर्तन करो, सुजान हो, अजान हो, जो हो हरि-कथा कहो। मैं शपथ करके कहता हूँ कि इससे तर जाओगे।

३३०- निराश मत हो, यह मत कहो कि हम पतित हैं, हमारा उद्धार क्या होगा। और कहीं मत देखो, श्रीहरि का गीत गाओ। प्रभु के चरण पकड़ लो, उनके नाम का आश्रय न छोड़ो।

३३१- हरि-कथा सुख की समाधि है।

३३२- राम, कृष्ण, हरि, नारायण-बस, इससे बढ़कर और क्या चाहिये?

३३३- वासना का मूल काटे बिना यह कोई न कहे कि मेरा उद्धार हो गया।

३३४- अमृत का बीज, आत्मतत्त्व का सार, गुह्य का गुह्य रहस्य श्रीराम-नाम है।

३३५- लोभ, मोह, आशा, तृष्णा, माया सब हरि-गुणगान से रफूचक्कर हो जाते हैं।

३३६- प्रेमियों का संग करो। धन-लोभादि माया के मोहपाश हैं। इस फंदे से अपना गला छुड़ाओ।

३३७- ज्ञानी बनने वालों के फेर में मत पड़ो; कारण निन्दा,अहंकार, वाद-विवाद में अटककर वे भगवान से बिछुड़े रहते हैं।

३३८- साधुओं का संग करो। संत-संग से प्रेम-सुख लाभ करों।

३३९- साधक की अवस्था उदास रहनी चाहिये। 'उदास' किसे कहते हैं, जिसे अंदर-बाहर कोई उपाधि न हो, जिसकी जिह्वा लोलुप न हो, भोजन और निद्रा नियमित हों, स्त्री-विषय में फिसलने वाला न हो।

३४०- एकान्त में या लोकान्त में प्राणोंपर बीत आवे तो भी विषय-वासना और उसके उद्दीपनों से दूर रहे।

३४१- सज्जनों का संग, नामका उच्चारण और कीर्तन का घोष अहर्निश किया करे। इस प्रकार हरि-भजन में रमे।

३४२- सदाचार में ढीला रहकर भगवद्भक्तों के मेले में कोई केवल भजन करे, तो वह भजन कुछ भी काम नहीं देगा। वैसे ही कोई सदाचार में पक्का है, पर भजन नहीं करता तो भी अधूरा ही है।

३४३- सदाचार से रहे और हरि को भजे, उसी को गुरुकृपा से ज्ञान-लाभ होगा।

३४४- एकान्तवास, गङ्गास्नान, देवपूजन, तुलसी - परिक्रमा नियमपूर्वक करते हुए हरिचिन्तन में समय व्यतीत करे ।

३४५- देह भगवान को अर्पण करे। परमार्थ-लाभ ही महाधन है, यह जानकर भगवान के चरण प्राप्त करे।

३४६- निन्दा और वाद सर्वथा त्याग दे।

३४७- कलियुग में कीर्तन करो, इसी से नारायण दर्शन देंगे।

३४८- जिस घर के द्वार पर तुलसी का पेड़ न हो उस घर को श्मशान समझो।

३४९- पर-नारी माता के समान जाने। परधन और परनिन्दा तजे। राम-नाम का चिन्तन करे। संत वचनों पर विश्वास रखे। सच बोले। इन्हीं साधनों से भगवान् मिलते हैं और प्रयास करने की आवश्यकता नहीं।

३५०- मस्तक नीचा करो, संतों के चरणों में लगो औरों के गुण-दोष न सुनो, न मन में लाओ। शक्तिभर उपकार भी किये चलो। यह सुलभ उपाय है।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 7 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 7 Reviewed by Vishant Gandhi on October 28, 2020 Rating: 5

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