जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 14


६५१- राम और कृष्ण नाम सीधे-सीधे लो और उस
श्याम रूप को मन से स्मरण करो।


६५२- पेट में अन्न न हो तो श्रृंगार की क्या शोभा। उसी प्रकार श्रीहरि के प्रेम बिना कोई ज्ञान किसी काम का नहीं।

६५३- श्रीहरि गोविन्द नाम की धुन जब लग जाएगी, तब यह काया भी गोविन्द बन जाएगी, भगवान से कोई दुराव, कोई भेद-भाव नहीं रह जाएगा। मन आनन्द से उछलने लगेगा, नेत्रों से प्रेम बहने लगेगा। कीट भृङ्ग बनकर जैसे कीटरूप में फिर अलग नहीं रहता वैसे तुम भी भगवान से अलग नहीं रहोगे।

६५४- सकुचकर ऐसे छोटे क्यों बन गये हो। ब्रह्माण्ड का हुआ, पर आचमन कर लो। पारण करके संसार से हाथ धो लो। बहुत देर हुई, अब देर मत करो।

६५५- शास्त्र जिस चीज को छोड़ देने को कहे, उसे, चाहे वह राज्य ही क्यों न हो, तृणवत् त्याग दे। शास्त्र जिसे ग्रहण करने को कहे,चाहे वह विष ही क्यों न हो, उसे जरूर ग्रहण करे।

६५६- मार्ग में अंधे के आगे जैसे आँख वाला चलकर उसे रास्ता बताता है, उसी तरह संत महापुरुष भी धर्म का आचरण करके जो अज्ञानी
हैं उन्हें धर्म का तत्त्व बतलाते हैं।

६५७- संत पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर पुकार रहे हैं। भगवान की शरण लो, प्राणिमात्र में उसी का भजन करो। गो, खर, गज, श्वान सबको समान रूप से वन्दन करो ।

६५८- जन्मके प्रसङ्ग से स्त्री-देह का जो स्पर्श हुआ सो उसके बाद सम्पूर्ण जीवन में कभी वह स्पर्श न हो। ऐसा जिसका कठिन ब्रह्मचर्य है, वही सच्चा ब्रह्मचारी है।

६५९- फिर चलो, फिर चलो रे जीव ! नहीं तो गोते खाओगे। माया नदी की इस बाढ़ में बह जाओगे। भव नदी का पानी, प्यारे ! बड़े वेग से खींचता है और बड़े-बड़े तैराकों को उठाकर नीचे गिराता है । संसार क्षण भङ्गुर है, इसका कोई भरोसा नहीं। यह दुर्लभ नरतन छूट जाएगा, तब पीछे पछताओगे।

६६०- जो गये हुए का स्मरण नहीं करता, मिले हुए की इच्छा नहीं रखता, अन्तःकरण में मेरु के समान अचल रहता है, जिसका अन्तःकरण मैं- मेरा भूला रहता है, वही निरन्तर संन्यासी है।

६६१- निरन्तर सदभ्यास करो, चित्त को परम पुरुष के मार्ग में लगा दो, फिर शरीर रहे चाहे जांए।

६६२- अपनी पूज्यता अपनी आँखों न देखे, अपनी कीर्ति अपने कानों न सुने, ऐसा न करे जिससे लोग यह पहचान लें, कि यह अमुक है। बृहस्पति के समान सर्वज्ञता प्राप्त हो तो भी महिमा के भय से
अज्ञानियों की भाँति रहे। अपना चातुर्य छिपावे, अपना महत्त्व बिसार दे और अपना बावलापन लोगों को दिखावे।

६६३- दुलत्ती झाड़ने वाली गौ जैसे अपना दूध चुराती है, वेश्या जैसे अपनी वयस् चुराती है, कुलवधू जैसे अपने अङ्ग छिपाती है, वैसे ही अपना सत्कर्म छिपाओ।

६६४- कमलपर भौरे जो पैर रखते हैं, बड़े हल्के रहते हैं। इस भय से कि कहीं केसर कुचल न जाए,  उसी प्रकार सर्वत्र परमाणुवत् जीव भरे हुए हैं। यह जानकर संत-महात्मा दयावृत्ति से धरती पर बहुत ही हल्के पैर रखता है। वह समस्त प्राणियों के नीचे अपना जी बिछाता है।

६६५- ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे संत स्वभावतः सह न ले; और वह सह लेता है इसका उसे कोई स्मरण भी नहीं रहता।

६६६- साधु के लिये अपना-पराया कुछ भी नहीं, सारे विश्व से ही उसकी जान-पहचान है, बड़ा पुराना नाता है। हवा का चलना जैसे सीधा होता है, वैसे ही उसका भाव सरल होता है। उसमें शङ्का या आकांक्षा नहीं होती।

६६७- माँ के पास जाते बच्चे को जैसे कोई सोच-संकोच नहीं होता, वैसे ही संत के लिये लोगों को अपना मन देते कोई शङ्का नहीं होती। उसके
लिये कोई कोना-अंतरा नहीं हुआ करता। उसकी दृष्टि में कपट नहीं होता, बोलने में संदेह नहीं होता। दसों इन्द्रियाँ उसकी सरल, निष्प्रपञ्च और निर्मल
होती हैं और उसके पञ्च प्राणों के स्तर आठों प्रहर मुक्त रहते हैं।

६६८- भागते हुए मेघों के साथ आकाश नहीं दौड़ता, वैसे ही संत पुरुष का मन चलते हुए शरीर के साथ नहीं चला करता, ध्रुव-जैसा स्थिर रहता है।

६६९- समुद्रमें गङ्गाजल जैसे मिलकर भी मिलता रहता है, वैसे ही संत पुरुष भगवत्स्वरूप होकर भी भगवान को सर्वस्व देकर भजता रहता है।

६७०- जो तीर्थों में, पवित्र जलाशयों के किनारे, सुन्दर तपोवनों में और गुहाओं में रहना पसंद करता है, एकान्त से जिसकी अत्यन्त प्रीति होती और जनपद से जिसका जी ऊबा हुआ होता है, उसे ज्ञान की मनुष्याकार मूर्ति ही जानो।

६७१- पञ्चतत्त्वों की देह बनी और फिर कर्मों के गुणों से बँधकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रही है। कालानल के कुण्ड में यह मक्खन की आहुति है। मक्खी का पङ्ख हिलते-न-हिलते इसका काम तमाम हो जाता है। इस देह की तो यह दशा है !

६७२- भगवान् प्रेम, सुख और शान्ति के निकेतन हैं। प्रेम, सुख और शान्ति उनका स्वरूप ही है।

६७३- शक्ति, बुद्धि, स्वतन्त्रता रहते दूसरों की देखा-देखी कल्याणकारी धर्ममार्ग की उपेक्षा करके सर्वथा अहितकर अधर्म के मार्ग पर चलना अपनी ही आन्तरिक दुर्बलता का द्योतक है।

६७४- कायेन, वाचा, मनसा अपने पास जो द्रव्य हो उसके द्वारा वैरी भी आर्त होकर आवे तो उसे विमुख न जाने देना; वृक्ष जैसे फूल, फल,छाया, मूल, पत्र सब कुछ जो कोई पथिक आ जांए, उसके सामने हाजिर करने में नहीं चूकता, वैसे ही प्रसङ्गानुसार श्रान्त पथिक कोई आ जाय, तो अपने धन-धान्यादि के द्वारा उसके काम आना। इसका नाम है, दान।

६७५- दान सर्वस्व देना ही है, अपने लिये खर्च करना व्यर्थ गँवाना है। ओषधि दूसरों को फल देती है और स्वयं सूख जाती है। उसी प्रकार हे वीर ! स्वरूप की प्राप्ति के लिये प्राण, इन्द्रिय और शरीर को घिसना ही तप है।

६७६- अपने गुणों से दूसरों के दोष दूर करके उनकी ओर देखना चाहिये।

६७७- सात्त्विक ज्ञान वही है, जिसमें उस ज्ञान के साथ ज्ञाता और ज्ञेय हृदय में एक हो जाते हैं। सूर्य जैसे अन्धकार को नहीं देखता, नदियाँ समुद्र को नहीं देखती, अपनी छाया अपने से अलग करके पकड़ी नहीं जाती, वैसे ही जिस ज्ञान को शिवादि से लेकर तृणपर्यन्त अपने से भिन्न नहीं दिखायी देते वह सात्त्विक ज्ञान है, वही मोक्ष-लक्ष्मी का भुवन है।

६७८- अरे! अदने से राजा के साथ सोने वाली दासी भी राजा की बराबरी करती है। फिर मैं तो साक्षात् विश्वेश्वर हूँ। मेरे मिलने पर भी जीव-ग्रन्थि न छूटे ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसा निपट झूठ कान में भी न पड़ने दो।

६७९- दोनों दर्पण उठकर एक-दूसरे के आमने-सामने आ गये। अब बताइये कौन किसको देख रहा है।

६८०- हौए से डरना बचपन में होता है। पर जो बच्चे नहीं हैं, उनके लिये हौआ क्या? वैसे ही मृत्यु को भी कौन माने ।

६८१- फल देकर फूल सूख जाता है, फल रस पकने पर नष्ट होता है। रस भी तृप्ति देकर समाप्त होता है। आहुति को अग्नि में डालकर हाथ हट जाता है। गीत आनन्द पाकर मौन हो जाता है। वैसे
ही सत्-चित्-आनन्द-पद द्रष्टा को दिखाकर मौन हो जाते हैं।

६८२- भगवान के द्वारपर पलभर तो खड़े रहो।

६८३- चारों वेद, छहों शास्त्र, अठारहों पुराण हरि के ही गीत गाते हैं।

६८४- दिन-रात प्रपञ्च के लिये इतना कष्ट करते हो, भगवान को क्यों नहीं भजते?

६८५- जप, तप, कर्म, धर्म, हरि के बिना सब श्रम व्यर्थ हैं।

६८६- हरि, हरि, हरि! जिसकी वाणी यह मन्त्र जपती है, उसे मोक्ष मिलता है।

६८७- शास्त्र का प्रमाण है, श्रुति का वचन है कि 'नारायण' ही सब जापों का सार है।

६८८- भाव मत छोड़। संदेह छोड़ दे; गला फाड़कर राम-कृष्ण को पुकार।

६८९- एक नाम का ही तत्त्व मन से दृढ़ धर ले। हरि तुझपर करुणा करेंगे।

६९०- 'राम-कृष्ण-गोविन्द' नाम सरल है। गद्गद होकर वाणी से इसका पहले जप कर।

६९१- नाम से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है। व्यर्थ और रास्तों में मत भटक।

६९२- हरि के बिना यह सारा संसार झूठा व्यवहार है; व्यर्थ का आना-जाना है।

६९३- नाम-मन्त्र-जप से कोटि पाप नष्ट होगा। कृष्ण नामका संकल्प पकड़े रह।

६९४- निरन्तर हरि का ध्यान करने से सब कर्मो के बन्धन कट जाते हैं। राम-कृष्ण-नाम-उच्चारण से सब दोष दिगन्त में भाग जाते हैं।

६९५- हे गोपाल ! हे हरि ! हे जगत्त्रय जीवन ! यह मन तेरे ही ध्यान में लग जाए, एक क्षण भी खाली न जाए।

६९६- तन-मन तेरे ही चरणों में शरणालङ्कृत किये हैं। रुक्मिणीदेवी-वर मेरे बाप हैं। मैं और कुछ नहीं जानता।

६९७- हरि आदि में हैं, हरि अन्त में हैं, हरि सब भूतों में व्यापक हैं। हरि को जानो, हरि को बखानो, वही मेरे माँ-बाप हैं।

६९८- हृदय में भगवान के निराकार रूप का ध्यान नेत्रों से भगवत्लीलाका दर्शन और जीभ से राम-नाम का जप। इतना हो सके, तो फिर और करना ही क्या रहा?

६९९- श्रीराम के नाम का स्मरण करो। यह संजीवनी औषधि है।

७००- जिसकी कहीं गति नहीं, उसके लिये एकमात्र अवलम्बन राम-नाम है।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 14 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 14 Reviewed by Vishant Gandhi on November 01, 2020 Rating: 5

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