७०१- अलग-अलग क्या बकता फिरता है, एक सीधा मुक्ति का मार्ग श्रीराम-नाम जप ।
७०२- अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई आज अभी सुधर जाय, यदि तू बुरी संगति छोड़कर श्रीराम का होकर श्रीराम-नाम का जप करने लगे।
७०३- राम-नाम स्मरण करने से सब सिद्धियाँ हाथ आ जाती हैं और प्रत्येक पगपर परम आनन्द प्राप्त होता है।
७०४- श्रीराम का मुझे सहारा हो; राम का बल हो, राम-नाम में विश्वास हो और आनन्द-मङ्गल के साथ मैं श्रीराम-नाम का स्मरण करूँ। लोक और परलोक का बनाने वाला श्रीराम-नाम ही है।
७०५- श्रीराम का स्मरण करते ही जो हृदय प्रेम से पिघल नहीं उठता, वह फट जाय; जिन नेत्रों में आँसू नहीं आते, वे फूट जायँ और जो शरीर पुलकित नहीं होता, वह जल जाय।
७०६- हरि का सुयश सुनकर जिन नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक न आवे उनमें तो मुट्ठीभर धूल डाल देनी चाहिये।
७०७- हे मन ! सबसे फीका हो, केवल श्रीहरि से ही सरस रह।
७०८- अब तुझे पाकर औरों के सामने हाथ क्या पसारूँ? प्रभु का होकर जगत से अब क्या याचना?
७०९- जो कुछ मिल जाय, उसी में संतोष और श्रीहरि-चरणों में प्रीति। बस, इसके आगे सुख है क्या वस्तु ।
७१०- अपने निर्वाह के लिये जो चिन्ता अथवा प्रपञ्च नहीं करता वही सच्चा विश्वासी है।
७११- जिसका मन पवित्र नहीं उसका कोई काम पवित्र नहीं होता।
७१२- जो आँखें ईश्वर की ताबेदारी में रहना भला नहीं मानतीं, उनका तो फूट जाना ही अच्छा है। जो जीभ ईश्वर की चर्चा नहीं करती, वह गूंगी ही रहे तो अच्छा। जो कान सत्य नहीं सुनते वे बहरे ही रह जायँ, तो अच्छा और जो तन ईश्वर की सेवा में नहीं लगता, उसका न रहना ही अच्छा है।
७१३- जन्म के पहले तू ईश्वर का जितना प्यारा था, उतना ही मृत्युपर्यन्त बना रहे ऐसा आचरण कर।
७१४- धन-दौलत कमाने के पीछे क्यों पड़े हुए हो? तुम्हारी जरूरियातों को पूरा करने और तुम्हारी देखभाल रखने का सारा भार तो ईश्वर ने ही ले रखा है। यदि उसका भरोसा करोगे तो सब तरह से शान्ति और सुख पाओगे।
७१५- जो इस नाशवान् संसार में आसक्त नहीं है, वही अनुभवसिद्ध ज्ञानी ऋषि है। तल्लीन होकर ईश्वर का गुण गाना, मत्त होकर संगीत सुनना और प्रभु की अधीनता मानकर काम करना ही संत का धर्म है।
७१६- प्रायश्चित्त की तीन सीढ़ियाँ हैं- आत्मग्लानि, दूसरी बार पाप न करने का निश्चय और आत्मशुद्धि।
७१७- प्रभु के मार्ग में प्राण तक देने की तैयारी न हो तो उसके प्रति प्रेम है, ऐसा मानना ही नहीं चाहिये।
७१८- ईश्वर में निमग्न होने में ही अपने मन का नाश है।
७१९- अन्तःकरण में उपजा हुआ ईश्वर-दर्शन का एक कण-जितना उत्साह भी स्वर्ग के लाखों मन्दिरों में जाने की मिठास से भी अधिक मीठा है।
१२०- सच्चा संत जब बाहर से चुपचाप होता है, तब वह भीतर ही भीतर ईश्वर से बात करता रहता है और जब उसके नेत्र मुँदे होते हैं, तब वह ईश्वर की महिमा अथवा उसके स्वरूप को देखता रहता है।
७२१- भले ही तुम पैदल चलते रहो; परन्तु मन पर तो सवारी गाँठे ही रहना।
७२२- ईश्वर को जानकर भी उससे प्रेम न करना असम्भव है। जो परिचय प्रेम शून्य है, वह परिचय ही नहीं।
७२३- ईश्वर जिस पर खुश होता है, उसे नदीकी-सी दानशीलता, सूर्यकी-सी उदारता और पृथ्वीकी-सी सहनशीलता प्रदान करता है।
७२४- ये सब वाद-विवाद शब्दाडम्बर और अहंता-ममता तो परदे के बाहर की बातें हैं। परदे के भीतर तो नीरवता, स्थिरता, शान्ति और आनन्द व्याप्त है।
७२५- साधना के लिये जो कुछ करना पड़े सब करना, परन्तु उसमें भी प्रभु-कृपा का प्रताप ही समझना, अपना पुरुषार्थ नहीं।
७२६- जो ईश्वर के नजदीक आ गया, उसे किस बात की कमी? सभी पदार्थ और सारी सम्पत्ति उसकी ही है। क्योंकि उसका परमप्रिय सखा सर्वव्यापी और सारी सम्पत्ति का स्वामी है।
७२७- जो अपना परिचय ईश्वर-ज्ञानी कहकर देता है, वह मिथ्याभिमानी है। जो यह कहता है, कि मैं उसे नहीं जानता वही बुद्धिमान् है।
७२८- सारी दुनिया तुझे अपना ऐश्वर्य और स्वामित्व भी सौंप दे, तो तू फूल न जाना और सारी दुनिया की गरीबी भी तेरे हिस्से में आ जाए, तो उससे नाराज न होना। चाहे जैसी हालत हो, एक उस प्रभु का काम बजाने का ध्यान रखना।
७२९- जो मनुष्य लौकिक लालसा के वश में होकर
ऋषि-मुनियों के हृदयस्थ हरि की आवाज की अवगणना करता है, उसे तो ग्लानि का कफन ओढ़कर अपमान की श्मशान-भूमि में ही जलना पड़ता है; और जो इन्द्रियों और भोगेच्छा को दुर्बल बनाकर लौकिक पदार्थों से दूर रहता है, वह सत्य, सुख, शान्ति की चादर ओढ़कर सम्मान की भूमि में
स्वयं श्रीहरि की गोद में सो जाता है।
७३०- ईश्वर को जानने वाले का हृदय निर्मल काँच की हाँडी में जलते दीपक के समान है। उसका प्रकाश सर्वत्र फैलता है। खुद उसे तो फिर डर ही कैसा?
७३१- इन असंख्य तारों और नभमण्डल के सिर जनहार की नजर तू जहाँ कहीं भी होगा वहीं रहेगी। ऐसा विचार कर सदा-सर्वदा, सावधान और पवित्र रहना।
७३२- किन-किन बातों से ईश्वर की प्राप्ति होती है? गूंगे, बहरे और अन्धेपन से। प्रभु के सिवा न कुछ बोलो, न सुनो और न देखो।
७३३- मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है? ईश्वर के सिवा किसी दूसरी चीज से प्रीति न जोड़ना।
७३४- ईश्वर के भजन-पूजन में जो दुनिया की सारी चीजों को भूल जाता है, उसे सभी चीजों में ईश्वर-ही-ईश्वर दिखलायी देने लगता है।
७३५- सभी हालतों में प्रभु और प्रभुभक्तों का दास होकर रहना ही अनन्य और एकनिष्ठ भक्ति करना है।
७३६- अपने प्यारे के श्रवण, मनन, कीर्तन आदि में जो बाधाएँ हैं, उन्हें दूर करना सच्चे प्रभु-प्रेम का चिह्न है।
७३७- भीतर से प्रभु की प्रगाढ़ भक्ति करना, किंतु बाहर से उसे प्रकट न होने देना साधुता का मुख्य चिह्न है।
७३८- ईश्वर की उपासना में मनुष्य ज्यों-ज्यों डूबता जाता है, त्यों-त्यों प्रभुदर्शन के लिये उसकी आतुरता बढ़ती जाती है। यदि एक पल के लिये भी उस प्रभु का साक्षात्कार हो जाता है, तो वह उस स्थिति की अधिकाधिक इच्छा में लीन हो जाता है।
७३९- जो साधक हजारों भवनों की दौलत के भी लुभाये न लुभा, वही ईश्वर के बारे में बात करने लायक है।
७४०- जो मन की मलिनता से रहित, दुनिया के जंजाल से मुक्त और लौकिक तृष्णा से विमुख है, वही सच्चा संत है।
७४१-जिस किसी ने साधु पुरुषों का सहवास किया है, वही ईश्वर को पा सका है।
७४२- जब मेरी जीभ अद्वितीय ईश्वर की महिमा और गुण गाने लगी, तब मैंने देखा भूलोक और स्वर्गलोक मेरी प्रदक्षिणा कर रहे हैं। हाँ, लोग इसे देख नहीं पाये।
७४३- ईश्वर को पाने के लिये जिसका हृदय तरस रहा है, उसी का जन्म धन्य है, उसी की माता धन्य है। कारण, उसका सर्वस्व तो उस ईश्वर में समाया हुआ है।
७४४- जो मनुष्य ईश्वर में लीन रहता है और सुनने तथा देखने लायक उसी को समझता है, उसने सब कुछ सुन लिया है, देख लिया है और जान लिया है।
७४५- अगर तुम दुनिया की खोज में जाओगे तो दुनिया तुम पर चढ़ बैठेगी, उससे विमुख होओगे तब ही उसे पार कर सकोगे।
७४६- फकीर वह है, जिसे आज और कल किसी दिन की परवा नहीं, जो अपने और प्रभु के सम्बन्ध के आगे लोक और परलोक दोनों को तुच्छ समझता है।
७४७- बिना ईश्वर का नाम लिये कोई भी बात विचारने अथवा करने से बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ता है।
७४८- जो प्रभु को पाता है, वह अपने रूप में न रहकर प्रभु के रूप में समा जाता है।
७४९- मुँह बंद रखो। ईश्वर के सिवा दूसरी बात ही मत करो। मन में भी ईश्वर के सिवा और किसी बात का चिन्तन न करो। इन्द्रियों और अपने कार्यो द्वारा वैसे ही काम करो जिनसे ईश्वर खुश हो।
७५०- एकान्त में प्रभु के साथ बैठने वालेका लक्षण है। संसार की सब वस्तुओं और दूसरे सब मनुष्यों की अपेक्षा प्रभु ही को अधिक प्यार करना।

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