७५२- संतों और भक्तों की सेवा करना, उनके उपदेशों को श्रवण करना, उनके संग रहना और उनके आचरणों का अनुकरण करना यही सच्चा
सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।
७५३- भगवान् नारायण ही सर्वोपरि हैं और उनके चरणों में अपने को सर्वतोभावेन समर्पित कर देना ही कल्याण का एकमात्र उपाय।
७५४- यदि माता खीझकर बच्चे को अपनी गोद से उतार भी देती है, तो भी बच्चा उसी में अपनी लौ लगाये रहता है और उसी को याद करके रोता-चिल्लाता और छटपटाता है। उसी प्रकार हे नाथ ! तुम चाहे मेरी कितनी उपेक्षा करो और मेरे दुःखों की ओर ध्यान न भी दो तो भी मैं तुम्हारे
चरणों को छोड़कर और कहीं नहीं जा सकता। तुम्हारे चरणों के सिवा मेरे लिये कोई गति ही नहीं।
७५५- यदि पति अपनी पतिव्रता स्त्री का सबके सामने तिरस्कार भी करें, तो भी वह उसका परित्याग नहीं कर सकती। इसी प्रकार चाहे तुम मुझे कितना ही दुतकारो, मैं तुम्हारे अभय-चरणों को छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने की बात भी नहीं सोच सकता। तुम चाहे मेरी ओर आँखें उठाकर भी न देखो, मुझे तो केवल तुम्हारा और तुम्हारी कृपा का ही अवलम्बन है।
७५६- तुम्हारे चरणों को छोड़कर मैं जाऊँ भी कहाँ ? मेरे लिये और आश्रय ही क्या है ? तुम चाहे मेरे कष्टों का निवारण न करो, मेरा हृदय तो तुम्हारी ही दयासे द्रवी भूत होगा।
७५७- बादल चाहे किसान को भूल जाय, परंतु किसान तो सदा निर्निमेष दृष्टि से बादल की ओर ही ताकता रहता है। इसी प्रकार हे नाथ! मेरी अभिलाषा के एकमात्र विषय तुम ही हो। जो तुम्हें चाहता है, उसे त्रिभुवन की सम्पत्ति से कोई मतलब नहीं।
७५८- जिसका चित्त अखिल सौन्दर्य के भण्डार भगवान् नारायण के चरण-कमलों का चंचरीक बन चुका है, वह क्या एक नारी के रूप पर आसक्त हो सकता है ? जबतक जगत के किसी भी पदार्थ में आसक्ति है, तब तक प्रभु-चरणों में प्रीति कहाँ ?
७५९- हे प्रभो ! अब ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी वाणी केवल तुम्हारा ही गुणगान करे, मेरे हाथ तुम्हारे ही पैर पलोटें, मेरा मस्तक तुम्हारे ही चरणों में झुके, मेरे नेत्र सर्वत्र तुम्हारे ही दर्शन करें; मेरे कान तुम्हारे ही गुणों का श्रवण करें, मेरे चित्त के द्वारा तुम्हारा ही चिन्तन हो और मेरे हृदय को तुम्हारा ही स्पर्श प्राप्त हो।
७६०- किसी जंगली हिरन को फँसाने के लिये पालतू हिरन की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार भगवान् नारायण भी भक्तों के द्वारा ही संसारासक्त जीवों का उद्धार करते हैं।
७६१- जो आदमी अपना सारा संसार और अपने जीवन को प्रभु के अर्पण नहीं कर देता, वह दुनिया के इस भयानक जंगल को पार कर ही नहीं सकता।
७६२- ईश्वर का स्मरण करो तो ऐसा कि फिर दूसरी बार उसे याद ही न करना पड़े।
७६३- शरीर, वाणी, मन तीनों मेरे नहीं। उन्हें तो मैं ईश्वर को सौंप चुका हूँ। मेरा न लोक है, न परलोक। दोनों की जगह हैं, परमेश्वर ।
७६४- अपने सब काम भूलकर सदा ईश्वर का स्मरण करते रहो।
७६५- अगर उस करुणा-सागर की करुणा की एक बूंद भी तुम पर गिर जाय, तो दुनिया में किसी से कुछ भी माँगने की तुम्हें जरूरत नहीं रह जाएगी।
७६६- बस, यही करना है कि हम केवल भगवान पर निर्भर करना सीख लें; अपना सब कुछ उन्हें सौंपकर उनके हाथ की कठपुतली बन जायँ। वे जब, जो, जैसे करें उसी में हमें आनन्द का अनुभव हो।
७६७- भगवदाश्रय और भगवान नाम से पापों का समूल नाश हो जाता है, यह निश्चित है।
७६८- मनुष्य के किसी भी प्रयत्न से भगवान की प्राप्ति असम्भव ही है। प्रभु की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग प्रेम ही है। यह प्रेम शुद्ध, सात्त्विक और निष्काम होना चाहिये।
७६९- ईश्वर आनन्दमय हैं, वे लीला-रस-विस्तार के लिये ही सृष्टि-रचना करते हैं। इस सृष्टि में उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं है। अनादिकाल से विलग हुए जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही उनके द्वारा
सृष्टिलीला का सूत्रपात होता है।
७७०- परमात्मा के दर्शन में लीन होकर उसका स्मरण करना भी भूल जाओ, यही ऊँचा-से-ऊँचा स्मरण है।
७७१- सारे संसार का एक ग्रास बनाकर भी यदि बालक के मुँह में दे दिया जाय, तो भी वह भूखा ही रहेगा। जिसका मन खान-पान और गहने-कपड़े में ही बसा है, उसकी स्थिति पशु से भी गयी-बीती है।
७७२- दुनिया की सारी चीजों से मुँह मोड़कर एकमात्र प्रभु की ओर लग जाओ। इस दुनिया को आज नहीं तो कल छोड़ना ही है।
७७३- ईश्वर अपने भक्त से बार-बार कहता है, कि तू दुनिया से विमुख हो जा और मेरी ओर आ। और कुछ चाहे जितना करता रह, पर याद रख, बिना मेरी ओर आये तुझे सच्ची शान्ति और सुख मिलनेका ही नहीं। इसलिये पूछता हूँ- कब तक तू मुझसे भागता फिरेगा, कब तक मुझसे विमुख रहेगा?
७७४- पहनने-ओढ़ने में सादगी का ख्याल रखना। शौकीनीकी पोशाक और आडंबर से परे ही रहना ।
७७५- भक्त ज्यों ही प्रभु का सर्वभाव से आश्रय लेता है, त्यों ही परमेश्वर उसकी रक्षा, योग-क्षेम का सारा भार अपने हाथों में ले लेते हैं।
७७६- ईश्वर पर सतत दृष्टि रखना ही ईश्वरीय ज्ञान का फल है।
७७७- पूरे जागे हुए मनका यही अर्थ है कि ईश्वर के सिवा दूसरी किसी चीज पर चले ही नहीं। जो मन हरि की प्रीति में डूब गया, फिर उसे दूसरे किसी की क्या जरूरत?
७७८- जैसे मल से धोने पर मल दूर नहीं होता, वैसे ही भोग-प्राप्ति-जनित सुख से भोग की अप्राप्तिजनित दुःख नहीं मिट सकता। कीचड़ से कीचड़ धुलता नहीं वरंन् और भी बढ़ता है।
७७९- हे प्रभो! आपके सिवा मेरा कोई नहीं। आप मेरे हैं तो फिर सब कुछ मेरा है। मुझे अपने से जरा भी अलग न करिये। मेरे सामने अपने सिवा और किसी को न आने दें।
७८०- मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है? ईश्वर के सिवा किसी दूसरी चीज से प्रीति न जोड़ना।
७८१- विधि-विधान के सारे जाल को छिन्न-भिन्न करके मन, बुद्धि, चित्त और प्राण को प्रभु में एकनिष्ठ होकर अर्पित करे।
७८२- संसार के समस्त राग-द्वेष को मिटाकर मनुष्य प्रभु-प्रेम और हृदय की सच्ची प्रार्थना की साधना करे।
७८३- किसी भी लौकिक अथवा पारलौकिक पदार्थ को प्रभु से न जाँचो। वह तुम्हारी आवश्यकता को तुम्हारी अपेक्षा अधिक जानता है
और तुम्हें जब जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, वह दयालु प्रभु पहुँचा देगा। तुम्हारा बस, एक काम है, चारों ओर से चित्त को समेटकर प्रभु के
चरणों में बसा दो।
७८४- ज्ञानी, तपस्वी, शूर, कवि, पण्डित, गुणी-कौन है। इस संसार में जिसे मोह ने भरमाया नहीं, कामने नचाया नहीं। यह जगत् तो काजल की कोठरी है, कलंक से बचने का बस, एक ही उपाय है। भगवान का सतत स्मरण।
७८५- जिस पाप के आरम्भ में ईश्वर का भय और अन्तमें ईश्वर से याचना होती है, वह पाप भी साधक को ईश्वर के समीप ले जाता है; किंतु जिस तपश्चर्या के आरम्भ में अहंभाव और अन्त में अभिमान होता है, वह तप भी तपस्वी को ईश्वर से दूर ले जाता है।
७८६- अहंकारी साधक को 'साधक' नहीं कहा जा सकता, वह तो महा अपराधी है; परंतु प्रभु की प्रार्थना करने वाला एक पापी भी 'साधक' है।
७८७- बिना पश्चात्ताप के सच्ची साधना का आरम्भ नहीं होता। इसीलिये ईश्वरसाधना का पूर्व अङ्ग है पश्चात्ताप। ईश्वर-स्मरण के समय तो पश्चात्ताप के विचारों को भी दूर कर देना चाहिये, जिससे सब इष्ट वस्तुओं का स्थान एक ईश्वर ग्रहण कर ले।
७८८- जिस समय लोग 'उन्मत्त' और 'मस्त' कहकर मेरी निन्दा करेंगे, तभी मेरे मन में गूढ़ तत्त्वज्ञान उदय होगा।
७८९- सहनशील ऋषि और कृतज्ञ धनवान में श्रेष्ठ कौन? सहनशील ऋषि । धनवान् चाहे जितना भला हो, पर उसका मन लक्ष्मी में लिप्त रहता है; किंतु एक ऋषि का हृदय तो लगा रहता है, अपने
प्रभु में।
७९०- जो मनुष्य जीवन-निर्वाह के लिये नीतिपूर्वक व्यवहार करता है, वह भी ईश्वर की महिमा को समझता है; परंतु जो मनुष्य ईश्वर के लिये ही जीवन-निर्वाह करता है, वह तो ईश्वर को प्राप्त करता है।
७९१- तुम प्रभु को तो जानते हो न? तो अब तुम और कुछ भी न जानो तो कोई हानि नहीं। ईश्वर तुम्हें जानता है न; तो अब कोई दूसरा तुम्हें नहीं जाने तो कोई हानि नहीं।
७९२- जो मनुष्य ईश्वर को छोड़कर दूसरे से स्नेह करता है, वह क्या कभी सुखी हो सकता है ?
७९३- जबतक ममत्व है, तभीतक दुःख है। जहाँ ममत्व दूर हुआ कि सब अपना-ही-अपना है। आसक्ति को छोड़कर व्यवहार करो, धन, स्त्री तथा कुटुम्बियों में अपनेपन के भाव को भुलाकर व्यवहार करो।
७९४- परपुरुष से सम्बन्ध रखने वाली स्त्री बाहर से घरके कार्यों में व्यस्त रहकर भी भीतर-ही-भीतर उस नूतन जारसङ्गमरूपी रसायनका ही आस्वादन करती रहती है। इसी प्रकार बाहर से तो राजकार्यों को भले ही करते रहो; किंतु हृदय से सदा उन्हीं हृदयरमण के साथ क्रीडा-विहार करो।
७९५- जो स्त्रियों के हाव-भाव और कटाक्षों से घायल नहीं होता, जिस के चित्त को क्रोध रूपी अग्नि संताप नहीं पहुंचा सकती और जिसे प्रचुर विषयलोभरूपी बाण विद्ध नहीं कर सकते, यानी जिसकी दृष्टि में संसारी सभी भोग तृण के समान हैं, वह धीर महापुरुष इस सम्पूर्ण त्रिलोकी को बात-की-बात में जीत सकता है।
७९६- सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है, कि घर का पूर्ण रीति से परित्याग ही कर देना चाहिये; किंतु यदि घर को पूर्णरीत्या त्याग करने का सामर्थ्य न हो, तो घर में रहकर सब कार्य श्रीकृष्ण के ही निमित्त उनके प्रीत्यर्थ ही करे; क्योंकि श्रीकृष्ण सभी प्रकार के अनर्थों को मोचन करनेवाले हैं।
७९७- संग किसी का करना ही न चाहिये। सभी प्रकार के संगों का एकदम परित्याग कर देना चाहिये; किंतु यदि सब प्रकार के संगों का परित्याग करने में समर्थ न हो सके, तो सज्जन और संत-महात्माओं का ही संग करना चाहिये, क्योंकि संग से जो काम उत्पन्न होता है, उसकी औषधि संत ही हैं
७९८- भगवत्सेवा में जो अनुकूल पड़े, उसी का चिन्तन करना और जो भगवत्तत्त्वों में विघातक हों, उनका सर्वथा त्याग करना।
७९९- जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री को इस बात का पूर्ण विश्वास होता है, कि जिसने मेरा एक बार अग्नि के सम्मुख पाणिग्रहण किया है, वह मेरी
अवश्य रक्षा करेगा, उसी प्रकार श्रीकृष्ण पर भरोसा रखना कि वे हमारी अवश्य ही रक्षा करेंगे।
८००- भगवान को आत्मनिवेदन करने पर उनके प्रति भारी दीनता रखना।

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