जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 18

८५१- गोविन्द के गुण नहीं गाने से जीवन व्यर्थ जा रहा है, रे मन ! श्रीहरि को वैसे ही भज जैसे मछली जल को भजती है।

८५२- दृढ़निश्चयी, कोमलस्वभाव, इन्द्रियविजयी, क्रूर कर्म करने वालों का संग न करने वाला अहिंसक पुरुष इन्द्रियदमन और दान के द्वारा स्वर्ग को जीत लेता है।

८५३- ब्रह्मचर्य, तप, शौच, संतोष, प्राणिमात्र के साथ मैत्री और भगवान की उपासना-ये सबके पालन करने योग्य धर्म हैं।

८५४- काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को छोड़कर यह देखो कि 'मैं कौन हूँ !' आत्मज्ञान से रहित मूर्खा को घोर नर्कों में गिरना पड़ता है।

८५५- अच्छी हालत में सभी बन्धु हैं, बुरी हालत के बन्धु दुर्लभ हैं। जो बिगड़ी हालत का साथी है, वही सच्चा बन्धु है। मित्र वही जो विपत्ति के समय मनुष्य का साथ दे, न कि बीती हुई बातों के लिये उलाहना देने में ही सिर खपावे।

८५६- नीति को जानने वाले, प्रारब्ध को जानने वाले, वेद के ज्ञाता और शास्त्र के ज्ञाता बहुत हैं, ब्रह्म को जानने वाले भी मिल सकते हैं, परंतु अपने अज्ञान को जानने वाले तो बिरले ही होते हैं।

८५७- मुक्तपुरुष को कष्ट अवश्य होता है, पर उसको उस कष्ट में राग-द्वेष नहीं होता, वह उसे संसार का धर्म समझकर सहता है, सुख-दुःखों से उसकी वृत्ति में चञ्चलता नहीं आती, यही बद्ध और मुक्त का भेद है।

८५८- भगवान की पूजा के लिये सात पुष्प उपयोगी हैं --
१- अहिंसा।
२- इन्द्रिसंयम।
३- प्राणियों पर दया।
४- क्षमा।
५- मन को वश में करना।
६- ध्यान।
७- सत्य ।
   
       इन्हीं फूलों से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

८५९- तारे तभीतक जगमगाते हैं, जबतक कि सूर्य नहीं उगता। इसी प्रकार जबतक ज्ञान का उदय नहीं होता, तभीतक मनुष्य विषयों में लगा रहता है।

८६०- भगवत्प्राप्त पुरुष भगवद्भजन को छोड़कर दूसरे का पथप्रदर्शक नहीं बनता; क्योंकि वह अपने प्रभु के सिवा किसी को भी रक्षक, शिक्षक या मार्गदर्शक नहीं देखता।

८६१- बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भगवान् प्रसन्न नहीं होते और भगवत्कृपा बिना जीव को सपने में भी शान्ति नहीं मिल सकती।

८६२- जैसे पक्षी रात को आकर पेड़ पर बसेरा करते हैं और दिन उगते ही उड़ जाते हैं, वैसी ही हालत कुटुम्ब की समझनी चाहिये।

८६३- धन, स्त्री और पुत्रों में ही चित्त लगा रखा है; विपत्तिक्षमें काम आनेवाले मित्र भगवान की खोज क्यों नहीं करता?

८६४- जो असंतोषी है, वही दरिद्र है; जो इन्द्रियों के वश में है, वही कृपण है; जिसकी बुद्धि विषयों में फँसी हुई नहीं है, वही स्वतन्त्र है।

८६५- दुःख पाने पर भी सामने वाले को कड़वे वचन नहीं कहने चाहिये। ऐसे किसी काम में बुद्धि नहीं लगानी चाहिये जिससे दूसरे का द्रोह होता हो, ऐसी वाणी नहीं बोलनी चाहिये जिससे लोगों को
उद्वेग हो।

८६६- जिसके घर से अतिथि निराश लौट जाता है, उसका सैकड़ों घड़े घी का होम भी व्यर्थ है। अतिथि की जात-पात, विद्या आदि न पूछकर देवता समझकर उसका सत्कार करना चाहिये, क्योंकि अतिथि में सब देवता बसते हैं।

८६७- तुममें-हममें तथा सब प्राणियों में सर्वत्र एकमात्र भगवान् विष्णु ही व्याप्त हैं, फिर असहिष्णु होकर क्यों वृथा कोप करते हो? सबके अंदर एकमात्र आत्मा को देखो और भेदज्ञान को नष्ट कर दो।

८६८- किसी की हिंसा न करो या किसी को कष्ट न दो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, शरीर, मन और वचन से न्याय करो, किसी से कोई आशा न करो।

८६९- एक दिन सुमेरु पर्वत भी गिर पड़ता है; समुद्र भी सूख जाता है, पृथ्वी भी नष्ट हो जाती है, फिर इस क्षणभङ्गुर शरीर की तो बात ही कौन-सी है।

८७०- लोगों के सामने अपना दोष स्वीकार करने में जिसको जरा-सा भी संकोच नहीं होता; इतना ही नहीं, परंतु जो इसी में अपनी भलाई समझता है तथा अपने अच्छे काम दूसरों को जनाने की जो
बिल्कुल इच्छा नहीं रखता और जो दृढ़ संकल्प वाला है, वही सत्यनिष्ठ और सच्चा साधक है।

८७१- पिता-माता का सम्मान करो, व्यभिचार मत करो। चोरी मत करो, झूठी गवाही न दो, दूसरे की चीज पर मन न चलाओ।

८७२- अपने अंदर के बुरे भाव, अहंकार, भय और अज्ञान को पहले दूर करना चाहिये, तभी जीवन प्रभुमय बन सकता है।

८७३- आत्मा नित्य सिद्ध है, इसकी प्रतीति के लिये देश, काल अथवा शुद्धि आदि किसी की भी अपेक्षा नहीं है।

८७४- भगवान के नाम में रुचि, जीवों पर दया और भक्तों का सेवन। इन तीन साधनों के समान और कोई साधन नहीं।

८७५- जिस गृहस्थ में सत्य, धर्म, धृति और त्याग नामक चार धर्म होते हैं, वही मरकर इस लोक से परलोक को प्राप्त होकर सोच नहीं करता।

८७६- जो दूसरे को बदनाम करके नाम कमाना चाहते हैं, उनके मुँह पर ऐसी कालिख लगेगी जो मरने पर भी नहीं धुलेगी।

८७७- जिस घर में साधु की निन्दा होती है, वह समूल नष्ट हो जाता है, उसकी नींव, नाम और जगह का भी पता नहीं लगता।

८७८- हरिनाम रूपी गोली के साथ प्रेम, भक्ति, निष्ठा, एकाग्रता और निष्ठारूप अनुपान रहने से इन्द्रियरूप रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

८७९- माया-मोह को छोड़कर श्रीराम का भजन करना चाहिये। (ऐसे भजनरूपी) पारस का स्पर्श किये बिना (मनुष्य-शरीररूपी) लोहा दिन-दिन छीज रहा है।

८८०- जबतक मनुष्य पहले गाँव को नहीं छोड़ देता, तबतक दूसरे गाँव को नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार जबतक संसार का सम्बन्ध नहीं छोड़ा जाता, तबतक प्रभु के धाम में नहीं पहुँचा जा सकता।

८८१- आदमी वह काम तो नहीं करता जो उसके वश में है, परंतु वह करता है जो दूसरों के वश है अर्थात् वह अपने दोषों का त्याग तो नहीं करता पर दूसरों के दोष छुड़ाना चाहता है।

८८२- हम यदि अपने आसुरी गुणों से ही दूसरे के साथ बर्ताव करेंगे, तो उसके अंदर से भी वे आसुरी गुण निकलकर बर्ताव करने लगेंगे।

८८३- नम्रता का कवच पहन लेने पर कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। कपास की रूई तलवार से भी नहीं कटती।

८८४- वही पूत सपूत है जो मन लगाकर भगवान की भक्ति करता है, जिससे जरा-मरण से छूटकर अजर-अमर हो जाता है।

८८५- चराचर सभी दृश्य केवल मन के कारण हैं। जब यह मन अमन हो जाता है, तब द्वैत का कोई अनुभव ही नहीं रहता।

८८६- ममता और अभिमान से शून्य तथा चिन्ता से परे रहने वाला पुरुष अपने घर में रहता हुआ भी कभी किसी कर्म में आसक्त नहीं होता।

८८७- जो दूसरे से वैर रखते हैं, परायी स्त्री और पराये धन की ओर ताकते हैं तथा परनिन्दा करते हैं, वे पापी पामर मनुष्य देहधारी राक्षस हैं।

८८८- साधु की जाति न पूछो, उससे तो ज्ञान का उपदेश लो; तलवार का मोल करो; म्यान से क्या काम है?

८८९- सदा सच बोलना चाहिये। कलियुग में सत्य का आश्रय लेने के बाद और किसी साधन-भजन की आवश्यकता नहीं। सत्य ही कलियुग की तपस्या है।

८९०- जब मिले तभी मित्र का आदर करो, पीछे से प्रशंसा करो और जरूरत के वक्त बिना संकोच सहायता करो।

८९१- दुर्जन यदि विद्वान् हो तो भी उसका सङ्ग नहीं करना चाहिये; क्योंकि मणि से सुशोभित साँप क्या भयानक नहीं होता?

८९२- तन, मन और वचन की एकता रखनी चाहिये।

८९३- जो मनुष्य दूसरे लोगों के सामने तो भगवान की बातें करता है और अपने मन में सदा मान प्राप्त करने की तथा दूसरी सांसारिक चिन्ताओं में लगा रहता है, वह कभी-न-कभी बेइज्जत होकर जरूर आफत में पड़ेगा।

८९४- स्वार्थ ही सारे अपराधों और पापों की जड़ है और स्वार्थ की जड़ अज्ञान है।

८९५- जिसने कामनाओं का नाश कर मन को जीत लिया और शान्ति प्राप्त कर ली, वह राजा हो या रंक, संसार में उसको सुख ही सुख है।

८९६- कुमार्ग पर चलने वाला बिना जीता हुआ मन ही परम शत्रु है। मन को जीतकर समत्व को प्राप्त होना ही भगवान की मुख्य आराधना है।

८९७- संसार में वैराग्यरूपी सौभाग्य का पात्र, प्रसन्नचित्त, विषयों की आशा से रहित और यथा प्राप्त प्रारब्ध फल भोगने वाला पुरुष इसी जन्म में कृतार्थ हो जाता है

८९८- विश्वास, प्रेम और नियम से रामनाम का जप करो, फिर आदि, मध्य और अन्त-तीनों ही काल में कल्याण है।

८९९- मूर्खा का संग न करना, विद्वानों का संग करना और पूजनीय पुरुषों का सत्कार करना उत्तम और शुभकारक कर्म है।

९००- मन, वचन और शरीर से पूर्णरूप से संयमी रहना ही ब्रह्मचर्य है।

जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 18 जीवन की 50 अनमोल बातें - भाग 18 Reviewed by Vishant Gandhi on November 01, 2020 Rating: 5

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