८०१- छाया को छोड़कर असली आनन्द को खोजो, तुम्हें शान्ति मिलेगी।
८०२- जब हृदय में किसी से कुछ लेने की इच्छा ही नहीं तब जैसा ही धनी वैसा ही गरीब।
८०३- कीर्ति तो पतिव्रता है, पुंश्चली नहीं। उसने तो एक ही पुरुष श्रीहरि को वरण कर लिया है, इसलिये तुम उसकी आशा को छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो।
८०४- भक्ति-मार्ग की ओर बढ़ने वाले साधक को कामिनी, काञ्चन और कीर्ति के स्वरूप पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार आदि जो यावत् प्रेम पदार्थ हैं, उनका परित्याग करके तब इस पथ की ओर अग्रसर होना चाहिये।
८०५- जिसके हृदय में सच्ची श्रीकृष्ण भक्ति है, उससे बढ़कर श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। श्रेष्ठपने की यही पराकाष्ठा है।
८०६- श्रवण, कीर्तन ही प्रभु-प्रेम-प्राप्ति का मुख्य उपाय है और सब उपाय तथा आश्रयों का परित्याग करके श्रीहरि की ही शरण लेनी चाहिये।
८०७- गङ्गा की धारा की तरह मन की गति श्रीहरि की ही ओर बहती रहे। फिर श्रीकृष्ण दूर नहीं रहते। वे तो आकर भक्त से लिपट जाते हैं। यही तो उनकी भक्तवत्सलता है।
८०८- साधु-महात्मा-संत तथा भगवद्भक्तों के चरणों में दृढ़ अनुराग रखो। वे कैसे भी हों उनकी निन्दा कभी मत करो। सबको ईश्वर-बुद्धि से नम्र होकर प्रणाम करो। तुम्हारा कल्याण होगा।
८०९- श्रीकृष्ण-कृष्ण रटिये और वृन्दावन में बसिये, इसी में परम कल्याण है।
८१०- वैराग्य होने पर मान-प्रतिष्ठा, इन्द्रियस्वाद और लोकलाज की परवा ही नहीं रहती।
८११- त्यागी होकर भी जो परमुखापेक्षी बना रहता है, वह तो कुक्कुर के समान है।
८१२- त्यागी को अपनी वृत्ति सदा स्वतन्त्र रखनी चाहिये। भिक्षा माँगकर खाना ही उसके लिये परम भूषण है।
८१३- जो त्यागी होकर अपनी जिह्वा को वश में नहीं कर सकता, घर छोड़ने पर भी जिसे भिक्षा का संकोच है, वह तो इन्द्रियों का गुलाम है । परमार्थ का पथ उससे बहुत दूर है।
८१४- विरागी को निरन्तर नाम-जप करते रहना चाहिये।
८१५- समय पर रूखा-सूखा जो भी भिक्षा में प्राप्त हो जाय, उसी पर निर्वाह करके केवल कृष्णकथा-कीर्तन के निमित्त इस शरीर को
धारण किये रहना चाहिये।
८१६- सभी शास्त्रों का सार यही है, कि श्रीकृष्ण कीर्तन और नामस्मरण ही संसार में सुख का सर्वश्रेष्ठ साधन है। प्रेम की उपलब्धि नामस्मरण से ही हो सकती है
८१७- जिसे प्रेम की प्राप्ति करनी हो, उसे सबसे पहले साधु-संग करना चाहिये।
८१८- भजन, कीर्तन, सत्संग, भगवत्-लीलाओं का स्मरण यही मुख्य धर्म है।
८१९- अदोषदर्शी होना वैष्णवों के लिये सबसे मुख्य काम है।
८२०- ग्राम्यकथा कभी श्रवण नहीं करनी चाहिये। ग्राम्यकथा सुनने से चित्त में वे ही बातें स्मरण होती हैं, जिससे भजन में चित्त नहीं लगता।
८२१- विषयी लोगों की बातें करने से चित्त विषयमय बन जाता है।
८२२- सुस्वादिष्ट अन्न और चमकीले वस्त्र से बचना चाहिये !
८२३- हृदय में अभिमान आते ही सभी साधन नष्ट हो जाते हैं।
८२४- सदा-सर्वत्र और सब अवस्थाओं में भगवान नाम का जप करते रहना चाहिये। नाम-जप से श्रीकृष्ण-चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है।
८२५- मानसिक पूजा ही सर्वश्रेष्ठ पूजा है।
८२६- जहाँतक हो, विषयी धनिक पुरुषों के अन्न से तो बचना चाहिये।
८२७- आध्यात्मिक शास्त्रों के श्रवण, भगवान के नाम-कीर्तन, मन की सरलता, सत्पुरुषों का समागम, देहाभिमान के त्याग का अभ्यास इन
भागवत धर्म कि आचरण से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, फिर वह अनायास ही भगवान में आसक्त हो जाता है।
८२८- सोच करने से कोई लाभ नहीं है, सोच करने वाला केवल दुःख ही भोगता है। जो मनुष्य सुख और दुःख दोनों को त्याग देता है, जो ज्ञान से तृप्त है और बुद्धिमान् है, वही सुख पाता है।
८२९- सदाचार के पालन से मनुष्य दीर्घ आयु, मनचाही संतान और अटूट सम्पत्ति पाता है। इससे अल्पमृत्यु आदि का भी नाश होता है।
८३०- सब प्रकार से अपने हित के कार्य करने चाहिये। जो बहुत बोलते हैं, उनसे कुछ नहीं होता। संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं, जिससे सब लोग प्रसन्न हो सकें।
८३१- अरे, विषयों में इतना क्यों रम रहा है? कभी उनसे मुख नहीं मोड़ता, श्रीहरि का भजन कर जिससे यम के फंदे में न पड़ना पड़े।
८३२- जिस गृहस्थ में सत्य, धर्म, धृति और त्याग नामक चार धर्म होते हैं, उसे मरकर इस लोक से परलोक को प्राप्त होने पर सोच नहीं करना पड़ता।
८३३- जिसके चित्त से राग-द्वेष का नाश हो गया है, वही ज्ञानी, गुणी, दानी और ध्यानी है।
८३४- मन के अहंकार को छोड़कर ऐसी जबान बोलनी चाहिये, जिससे दूसरों को भी शान्ति पहुँचे और अपने को भी शान्ति मिले।
८३५- रात को सोना और दिन का खाना भूलकर, सारी बकवाद छोड़कर दिन-रात श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये।
८३६- जैसे शत्रु हुए बिना मित्र की कीमत नहीं मालूम होती, वैसे ही प्रेम की शक्ति के व्यवहार का स्थान न हो तो प्रेम की शक्ति का भी पता नहीं लगता।
८३७- लोग भाँति-भाँति की चर्चा किया करते हैं, परन्तु उन्हें अपने भीतरी और बाहरी जीवन की जाँच तथा समालोचना करनी चाहिये; अपने कार्य तथा स्वभाव की ओर से सदा सावधान रहना चाहिये और सन्मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यही सर्वोत्तम कार्य है।
८३८- प्रेम का परिचय केवल स्तुतियों से नहीं मिलता, अनेक दुःख झेलकर, समस्त स्वार्थ को तिलाञ्जलि देकर प्रेम को प्रमाणित करना पड़ता है।
८३९- जो स्वच्छ मन से ईश्वर का स्मरण किया करता है, उसके लिये किसी दूसरे मित्र की आवश्यकता नहीं है।
८४०- जिसके संग से सत्य, पवित्रता, दया, मौन, बुद्धि, श्री, लज्जा, कीर्ति, क्षमा, शम, दम और सौभाग्य का नाश हो, ऐसे अशान्त, मूर्ख, स्त्रियों के वश में रहनेवाले, देहाभिमानी मनुष्यों का संग कभी नहीं करना चाहिये।
८४१- कुसंग बिल्कुल छोड़ देनी चहिये; क्योंकि उसमें काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अन्तमें सर्वनाश हो जाता है।
८४२- मूर्खलोग ही असंतोषी होते हैं। असंतोष की कोई सीमा नहीं है, परन्तु संतोष से ही परम सुख मिलता है।
८४३- दुराचारी मनुष्य की जगत में निन्दा होती है, वह सदा दुःख भोगता है, रोगी रहता है और उसकी आयु बहुत कम होती है।
८४४- संतोष हुए बिना काम का नाश नहीं होता और कामना रहते कभी स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता । कामना श्रीराम के भजन बिना नहीं
मिटती।
८४५- जो तेरे लिये काँटे बोवें, तू उनके लिये भी
फूल बो।
८४६- धन की लालसा से जमीन को खोदा, पहाड़ों की धातुओं को फूंका, समुद्र-यात्रा की, बड़े प्रयत्न से राजाओं को खुश किया, मन्त्रसिद्धि के लिये श्मशान में रातें बितायीं, पर कहीं भी एक फूटी कौड़ी न मिली। हे तृष्णे ! तू अब तो मेरा पिण्ड छोड़।
८४७- प्रेम ही प्रभु का ऐश्वर्य है। जिसको प्रेम मिल जाता है, उसे सब कुछ मिल जाता है।
८४८- केवल उपासना से ही आत्मा की उन्नति और पूर्णता नहीं होती, उसके लिये प्रेम चाहिये। प्रेम से ही आत्मा का पूर्ण विकास होता है।
८४९- तुम जितना प्रयत्न संसार के विषयों की प्राप्ति के लिये करते हो, उतना यदि परमधाम के लिये करो तो तुम्हें वहाँ अवश्य ही स्थान मिले।
८५०- यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि कोई मनुष्य भला-बुरा नहीं कर सकता, जो कुछ होता है, ईश्वर ही का किया होता है।

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